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________________ ६९४ भोमद् राजचन्द्र १ प्रथम प्रकारके जीव मोमके गोले जैसे कहे हैं। मोमका गोला जिस तरह ताप लगनेसे पिघल जाता है, और फिर ठण्डी लगनेसे वैसाका वैसा हो जाता है, उसी तरह ससारी जीवको सत्पुरुषका बोध सुनकर संसारसे वैराग्य हुआ, वह असार ससारकी निवृत्तिका चिंतन करने लगा, कुटुम्बके पास आकर कहता है कि इस असार ससारसे मैं निवृत्त होना चाहता हूँ | इस बातको सुनकर कुटुम्बी कोपयुक्त हुए । अबसे तू इस तरफ मत जाना। अब जायेगा तो तेरेपर सख्ती करेंगे, इत्यादि कहकर सन्तका अवर्णवाद बोलकर वहाँ जाना रोक दे। इस प्रकार कुटुम्बके भयसे, लज्जासे जीव सत्पुरुषके पास जानेसे रुक जाये, और फिर ससार कार्यमे प्रवृत्ति करने लगे । ये प्रथम प्रकारके जीव कहे हैं । .२ दूसरे प्रकारके जीव लाखके गोले जैसे कहे है। लाखका गोला तापसे नही पिघल जाता परन्तु अग्निसे. पिघल जाता है। इस तरहका जीव सतका बोध सुनकर ससारसे उदासीन होकर यह चिन्तन करे कि इस दुखरूप संसारसे निवृत्त होना है, ऐसा चिन्तन करके कुटुम्बके पास जाकर कहे कि 'मै ससारसे निवृत्त होना चाहता हूँ। मुझे यह झूठ बोलकर व्यापार करना अनुकूल नही आयेगा,' इत्यादि कहनेके वाद कुटुम्बोजन उसे सख्ती और स्नेहके वचन कहे तथा स्त्रीके वचन उसे एकातके समयमे भोगमे तदाकार कर डालें। स्त्रीका अग्निरूप शरीर देखकर दूसरे प्रकारके जीव तदाकार हो जायें । सन्तके चरणसे दूर हो जायें। '', '.. . ३ तीसरे प्रकारके जीव काष्ठके गोले जैसे कहे है। . ", ___ वह जीव सतका बोध सुनकर ससारसे उदास हो गया। यह ससार असार है, ऐसा विचार करता हुआ कुटुम्ब आदिके पास आकर कहता है कि 'इस असार ससारसे मै खिन्न हुआ हूँ। मुझे ये कार्य करने ठीक नही लगते ।' ये वचन सुनकर कुटुम्बी उसे नरमीसे कहते है, 'भाई, अपने लिये तो निवृत्ति जैसा है।' उसके बाद स्त्री आकर कहती है-'प्राणपति | मैं तो आपके बिना पल भी नही रह सकती। आप मेरे जीवनके आधार हैं।' 'इस तरह अनेक प्रकारसे भोगमे आसक्त' करनेके लिये अनेक पदार्थोंकी वृद्धि करते हैं, उसमे तदाकार होकर सतके वचन भूल जाता है। अर्थात् जैसे 'काष्ठका गोला 'अग्निमे डालनेके वाद ' भस्म हो जाता है, वैसे स्त्रीरूप अग्निमे पड़ा हुआ जीव उसमे भस्म हो जाता है। इससे संतके बोधका विचार भूल जाता है । स्त्री आदिके भयसे सत्समागम नही कर सकता, जिससे वह जीव दावानलरूप स्त्री आदि अग्निमे फंस कर, विशेप विशेष विडम्बना भोगता है । ये तीसरे प्रकारके जीव कहे हैं। . ४. चौथे प्रकारके जीव मिट्टीके गोले जैसे कहे हैं। . वह पुरुष सत्पुरुषका बोध सुनकर इद्रियके विषयकी उपेक्षा करता है। संसारसे महा भय पाकर उससे निवृत्त होता है। उस प्रकारका जीव कुटुम्ब आदिके परिषहसे चलायमान नही होता । स्त्री आकर कहे-'प्यारे प्राणनाथ | इस भोगमे जैसा स्वाद है वैसा स्वाद उसके त्यागमे नही है।' इत्यादि वचन सुनकर महा उदास होता हैं, विचारता है कि इस अनुकूल भोगसे यह जीव बहुत बार भूला है। ज्यो ज्यो उसके वचन सुनता है त्यो त्यो महा वैराग्य उत्पन्न होता है। और इसलिये सर्वथा संसारसे निवृत्त होता है। मिट्टीका गोला अग्निमे पडनेसे विशेष विशेष कठिन होता है, उसी तरह वैसे पुरुष सतका बोध सुनकर ससारमे नही पडते । वे चौथे प्रकारके जीव कहे हैं। code
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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