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________________ ६७० श्रीमद् राजचन्द्र परिचर्याका प्रसंग लिखते हुए आपने जो वचन लिखे हैं वे यथार्थ है। शुद्ध अंत करणपर असर होनेसे निकले हुए वचन है। लोकसज्ञा जिसकी जिन्दगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे जैसी श्रीमतता, सत्ता या कुटुब परिवार आदिके योगवाली हो तो भी वह दुःखका हो हेतु है । आत्मशाति जिस जिंदगीका लक्ष्यबिंदु है वह जिंदगी चाहे तो एकाकी, निर्धन और निर्वस्त्र हो तो भी परम समाधिका स्थान है। ९५० वढवाण केम्प, फागुन सुदी ६, शनि, १९५७ कृपालु मुनिवरोको सविनय नमस्कार हो। पत्र प्राप्त हुआ। जो अधिकारी ससारसे विराम पाकर मुनिश्रीके चरणकमलके योगमे विचरना चाहता है, उस अधिकारीको दीक्षा देनेमे मुनिश्रीको दूसरा प्रतिवधका कोई हेतु नही है । उस अधिकारीको अपने बुजुर्गोंका सतोष सम्पादन कर आज्ञा लेना योग्य है, जिससे मुनिश्रीके चरणकमलमे दीक्षित होनेमे दूसरा विक्षेप न रहे। इसे अथवा किसी दूसरे अधिकारीको ससारसे उपरामवृत्ति हुई हो और वह आत्मार्थ-साधक है ऐसा प्रतीत होता हो तो उसे दीक्षा देनेमे मुनिवर अधिकारी है। मात्र त्याग लेनेवाले और त्याग देनेवालेके श्रेयका मार्ग वृद्धिमान रहे, ऐसी दृष्टिसे वह प्रवृत्ति होनी चाहिये । शरीर-स्थिति उदयानुसार है। बहुत करके आज राजकोट की ओर प्रस्थान होगा। प्रवचनसार ग्रन्थ लिखा जा रहा है, वह यथावसर मुनिवरोको प्राप्त होना सम्भव है। राजकोटमे कुछ दिन स्थितिका सम्भव है। __ ॐ शातिः ९५१ राजकोट, फागुन वदी ३, शुक्र, १९५७ अति त्वरासे प्रवास पूरा करना था । वहाँ बीचमे सहराका रेगिस्तान सम्प्राप्त हुआ। सिरपर बहुत बोझ रहा था उसे आत्मवीर्यसे जिस तरह अल्पकालमे वेदन कर लिया जाये उस तरह योजना करते हुए पैरोने निकाचित उदयमान थकान ग्रहण की। जो स्वरूप है वह अन्यथा नही होता, यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है। शरीर-स्थिति उदयानुसार मुख्यतः कुछ असाताका वेदन कर साताके प्रति। ॐ शातिः ९५२ राजकोट, फागुन वदी १३, सोम, १९५७ ॐ शरीरसम्बन्धी दूसरी बार आज अप्राकृत क्रम शुरू हुआ। ज्ञानियोका सनातन सन्मार्ग जयवन्त रहे। ९५३ राजकोट, चैत्र सुदी २, शुक्र, १९५७ अनत शातमूर्ति चन्द्रप्रभस्वामीको नमो नमः । वेदनीयको तथारूप उदयमानतासे वेदन करनेमे हर्ष-शोक क्या ? ॐ शातिः
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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