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________________ 1 ३३ वाँ वर्ष ६६५ या भाई कभी कुछ प्रश्न आदि करे, तो उसका योग्य समाधान करना, कि जिससे उसका आत्मा शात हो । अशुद्ध क्रियाके निषेधक वचन उपदेशरूपसे न कहते हुए, शुद्ध क्रियामे जैसे लोगोकी रुचि बढे वैसे क्रिया कराते जायें। 1 उदाहरण के लिये, जैसे कोई एक मनुष्य अपनी रूढिके अनुसार सामायिक व्रत करता है, तो उसका निषेध न करते हुए, जिस तरह उसका वह समय उपदेशके श्रवणमे या सत्शास्त्रके अध्ययनमे अथवा कायोत्सर्गमे बीते, उस तरह उसे उपदेश करे । उसके हृदयमे भी सामायिक व्रत आदिके निषेधका किंचित्मात्र आभास भी न हो ऐसी गभीरतासे शुद्ध क्रियाकी प्रेरणा दे । स्पष्ट प्रेरणा करते हुए भी वह क्रियासे रहित होकर उन्मत्त हो जाता है, अथवा 'आपकी यह क्रिया ठीक नही है' इतना कहनेसे भी, आपको दोष देकर वह क्रिया छोड़ देता है ऐसा प्रमत्त जोवोका स्वभाव है, और लोगोको दृष्टिमे ऐसा आयेगा कि आपने ही क्रियाका निषेध किया है । इसलिये मतभेदसे दूर रहकर, मध्यस्थवत् रहकर, स्वात्माका हित करते हुए, ज्योज्यो परात्माका हित हो त्यो त्यो प्रवृत्ति करना, और ज्ञानीके मार्गका; ज्ञान-क्रियाका समन्वय स्थापित करना, यही निर्जराका सुदर मार्ग है । स्वात्महित प्रमाद न हो और दूसरेको अविक्षेपतासे आस्तिक्यवृत्ति हो, वैसा उन्हे श्रवण हो, क्रियाकी वृद्धि हो, फिर भी कल्पित भेद न बढे और स्व-पर आत्माको शाति हो ऐसी प्रवृत्ति करनेमे उल्लसित वृत्ति रखिये । जैसे सत्शास्त्र के प्रति रुचि बढे वैसे कीजिये । यह पत्र परम कृपालु श्री लल्लुजी मुनिको सेवामे प्राप्त हो । ॐ शांतिः ९३८ वाणिया, आषाढ सुदी १, १९५६, " ते माटे ऊभा कर जोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध वेजो, जेम आनदधन लहीए रे ॥' —श्रीमान आनदघन्जी : पत्र प्राप्त हुए । शरीरस्थिति स्वस्थास्वस्थ रहती है, अर्थात् क्वचित् ठीक, क्वचित् असातामुख्य रहती है । मुमुक्षुभाइयोको, वह भी लोक विरुद्ध न हो इस ढगसे तीर्थयात्राके लिये जानेमे आज्ञाका अतिक्रम नही है । ॐ शांति. मोरबी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६ ९३९ ॐ नमः सम्यक् प्रकारसे वेदना सहन करनेरूप परम धर्म परम पुरुपोने कहा है । तीक्ष्ण वेदनाका अनुभव करते हुए स्वरूपभ्रंशवृत्ति न हो यही शुद्ध चारित्रका मार्ग है । उपशम ही जिस ज्ञानका मूल है, उस ज्ञानमे तोक्ष्ण वेदना परम निर्जरा रूप भातने योग्य है । ॐ शांति. मोरवी, आषाढ वदी ९, शुक्र, १९५६ ९४० ॐ परमकृपानिधि मुनिवरोंके चरणकमलमे विनय भक्तिसे नमस्कार प्राप्त हो । पत्र प्राप्त हुए । १ भावार्थ के लिये देखें आक ७४४ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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