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________________ श्रीमद् राजचन्द्र परम पुरुषकी प्रवृत्ति है, वह योगाश्रित पूर्व-बंधकी उदयमानतासे है, आत्माके स्वभावके किंचित् भी विकृतभावसे नही है। इस प्रकार सक्षेपमे उत्तर समझें। निवृत्तिवाला अवसर सम्प्राप्त करके अधिकाधिक मनन करनेसे विशेष समाधान और निर्जरा सम्प्राप्त होगे । सोल्लास चित्तसे ज्ञानकी अनुप्रेक्षा करनेसे अनत कर्मका क्षय होता है। ॐ शातिः शाति' शातिः धर्मपुर, चैत्र वदी १३, शुक्र, १९५६ कृपालु मुनिवरोकी यथाविधि विनय चाहते है । बलवान निवृत्तिके हेतुभूत क्षेत्रमे चातुर्मास कर्तव्य है। नडियाद, वसो आदि जो सानुकूल हो वह, एक स्थलके बदले दो स्थलमे हो उसमे विक्षिप्तताके हेतुका सम्भव नही है । असत्समागमका योग प्राप्त कर यदि बटवारा करे तो उस सम्बन्धी समयानुसार जैसा योग्य लगे वैसा, उन्हे बताकर उस कारणकी निवृत्ति करके सत्समागमरूप स्थिति करना योग्य है। यहाँ स्थितिका सभव वैशाख सुदी २ से ५ तक है। समागम सम्बन्धी अनिश्चित है। परमशांति ९१७ अहमदाबाद, भीमनाथ, वैशाख सुदी ६, १९५६ आज दशा आदि सम्बन्धी जो बताया है और बीज बोया है उसे न खोदे । वह सफल होगा। 'चतुरागुल है दृगस मिल है, यह आगे जाकर समझमे आयेगा । एक श्लोक पढते हुए हमे हजारो शास्त्रोका भान होकर उसमे उपयोग धूम आता है (अर्थात् रहस्य समझमे आ जाता है)। . ९१८ ववाणिया, वैशाख, १९५६ आपने कितने ही प्रश्न लिखे उन प्रश्नोका समाधान समागममे समझना विशेष उपकाररूप जानता. हैं। तो भी किंचित् समाधानके लिये यथामति सक्षेपमे उनके उत्तर यहाँ लिखता हूँ। . . . . सत्पुरुषको यथार्थ ज्ञानदशा, सम्यक्त्वदशा, और उपशमदशाको तो, जो यथार्थ, मुमुक्षु जीव सत्पुरुषके समागममे आता है वह जानता है, क्योकि प्रत्यक्ष उन तीन दशाओका लाभ श्री सत्पुरुषके उप-. देशसे कुछ अशोमे होता है। जिनके उपदेशसे वैसी दशाके अंग प्रगट होते हैं उनकी अपनी दशामे वे गण कैसे उत्कृष्ट रहे होने चाहिये, उसका विचार करना सुगम है, और जिनका उपदेश एकान्त नयात्मक हो उनसे वैसी एक भी दशा प्राप्त होनी सम्भव नही है यह भी प्रत्यक्ष समझमे आयेगा । सत्पुरुषकी वाणी सर्व नयात्मक होती है। अन्य प्रश्नोंके उत्तर-- __. , प्र०—जिनाज्ञाराधक, स्वाध्याय-ध्यानसे मोक्ष है या और किसी तरह? ____उ०-तथारूप प्रत्यक्ष सद्गुरुके योगमे अथवा किसी पूर्व-कालके दृढ आराधनसे जिनाज्ञा यथार्थ समझमे आये, यथार्थ प्रतीत हो, और उसकी यथार्थ आराधना की जाये तो मोक्ष होता है इसमे संदेह नहीं है। १ देखें आक २६५ का ७ वा पद। ..। " . आपनाम
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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