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________________ " ६५६ श्रीमद राजचन्द्र ९१३ धर्मपुर, चैत्र वदी ४, बुध, १९५६ पत्र प्राप्त हुआ । यहाँ समाधि है । अकस्मात् शारीरिक असाताका उदय हुआ है और शात स्वभावसे उसका वेदन किया जाता है, ऐसा जानते थे, और इससे सतोष प्राप्त हुआ था । समस्त ससारी जीव कर्मवशात् साता असाताके उदयका अनुभव किया ही करते है । जिसमे मुख्यत तो असाताके ही उदयका अनुभव किया जाता है । क्वचित् अथवा किसी देह संयोगमे साताका उदय अधिक अनुभवमे आता हुआ दिखाई देता है, परन्तु वस्तुत वहाँ भी अन्तर्दाह जला ही करता है । पूर्ण ज्ञानी भी जिस असाताका वर्णन कर सकने योग्य वचनयोग नही रखते, वैसी अनतानत असाता इस जीवने भोगी है, और यदि अब भी उनके कारणोका नाश न किया जाये तो भोगनी पड़े, यह सुनिश्चित है, ऐसा समझकर विचारवान उत्तम पुरुष उस अन्तर्दाहरूप साता और बाह्याभ्यंतर सक्लेशाग्निरूपसे प्रज्वलित असाताका आत्यतिक वियोग करनेके मार्गकी गवेषणा करनेके लिये तत्पर हुए और उस सन्मार्गकी गवेषणा कर, प्रतीति कर उसका यथायोग्य आराधन कर अव्याबाध सुखस्वरूप आत्माके सहज शुद्ध 'स्वभावरूप परमपदमे लीन हुए । साता-असाताका उदय अथवा अनुभव प्राप्त होनेके मूल कारणोकी गवेषणा करनेवाले उन महान पुरुषोको ऐसी विलक्षण सानदाश्चर्यकारी वृत्ति उद्भूत होती थी कि साताकी अपेक्षा असाताका उदय प्राप्त होनेपर और उसमे भी तीव्रतासे उस उदयके प्राप्त होनेपर उनका वीर्यं विशेषरूपसे जानत होता था, उल्लसित होता था, और वह समय अधिकतासे कल्याणकारी माना जाता था । कितने ही कारणविशेषके योगसे व्यवहारदृष्टिसे ग्रहण करने योग्य औषध आदि आत्म-मर्यादा रहकर ग्रहण करते थे, परन्तु मुख्यतः वे परम उपशमकी हो सर्वोत्कृष्ट औषधरूपसे उपासना करते थे । उपयोग-लक्षणसे सनातन - स्फुरित ऐसे आत्माको देहसे, तेजस और कार्मण शरीरसे भी भिन्न अवलोकन करनेकी दृष्टि सिद्ध करके, वह चैतन्यात्मकस्वभाव आत्मा निरतर वेदक स्वभाववाला होनेसे अबंधदशाको जब तक सप्राप्त न हो तब तक साता - असातारूप अनुभवका वेदन किये बिना रहनेवाला नही है यह निश्चय करके, जिस शुभाशुभ परिणामधाराकी परिणतिसे वह साता असाताका सम्बन्ध करता है उस धाराके प्रति उदासीन होकर, देह आदिसे भिन्न और स्वरूपमर्यादामे रहे हुए उस आत्मामे जो चल स्वभावरूप परिणामधारा है उसका आत्यतिक वियोग करनेका सन्मार्ग ग्रहण करके, परम शुद्धचैतन्यस्वभावरूप प्रकाशमय वह आत्मा कर्मयोगसे सकलक परिणाम प्रदर्शित करता है उससे उपरत होकर, जिस प्रकार • उपशमित हुआ जाये उस उपयोगमे और उस स्वरूपमे स्थिर हुआ जाये, अंचल हुआ जाये, वही लक्ष्य, भा, ही चिंतन और वही सहज परिणामरूप स्वभाव करना योग्य है । महात्माओकी वारंवार यही शिक्षा है । उस सन्मार्गंकी गवेषणा करते हुए, प्रतीति करनेकी इच्छा करते हुए, उसे सप्राप्त करने की इच्छा करते हुए ऐसे आत्मार्थी जनको परमवीतरागस्वरूप देव, स्वरूपनैष्ठिक निःस्पृह निग्रंथ रूप गुरु, परमदयामूल धर्मव्यवहार और परमशातरस रहस्य वाक्यमय सत्शास्त्र, सन्मार्गकी संपूर्णता होने तक परमभक्तिसे उपासनीय है, जो आत्माके कल्याण के परम कारण है यहाँ एक स्मरण प्राप्त गाथा लिखकर यहाँ इस पत्रको सक्षिप्त करते है । भीसण नरयगईए, तिरियगईए कुदेव मणुयगईए । पत्तोसि तिव्व दुःखं, भावहि जिणभावणा जीव ॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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