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________________ श्रीमद राजचन्द्र हमने जो यह अनुरोध किया है, उस पर आप यथाशक्ति पूर्ण विचार कर देखें, ओर उस वृत्तिका मूल अतरसे सर्वथा निवृत्त कर डालिये । नही तो समागमका लाभ प्राप्त होना असंभव है । यह बात शिथिलवृत्तिसे नही परतु उत्साहवृत्तिसे सिरपर चढानी योग्य है । मगनलालने मार्गानुसारीसे लेकर केवलपर्यंत दशासवधी प्रश्नोंके उत्तर लिखे थे, वे उत्तर हमने पढे हैं । वे उत्तर शक्तिके अनुसार हैं, परंतु सद्बुद्धिसे लिखे गये हैं । मणिलालने लिखा कि गोशळियाको 'आत्मसिद्धि' ग्रथ घर ले जानेके लिये न देनेसे बुरा लगा इत्यादि लिखा, उसे लिखनेका कारण न था । हम इस ग्रंथके लिये कुछ रागदृष्टि या मोहदृष्टिमे पडकर डुगरको अथवा दूसरेको देनेमे प्रतिवध करते हैं, यह होना संभव नही है । इस ग्रन्थकी अभी दूसरी नकल करनेकी प्रवृत्ति न करे । ६२८ ८२२ आणंद, पौष वदी ११, मंगल, १९५४ आज सवेरे यहाँ आना हुआ है । लीमड़ीवाले भाई केशवलालका भी आज यहाँ आना हुआ है । भाई केशवलालने आप सबको आनेके लिये तार किया था सो सहजभावसे था । आप सब कोई न आ सके यो विचार कर इस प्रसगपर चित्तमे खिन्न न होवें । आपके लिखें पत्र और चिट्ठी मिले हैं। किसी एक हेतुविशेषसे समागमके प्रति अभी विशेष उदासीनता रहा करती थी, और वह अभी योग्य है, ऐसा लगने से अभी मुमुक्षुओका समागम कम हो ऐसी वृत्ति थी । मुनियोंसे कहे कि विहार करनेमे अभी अप्रवृत्ति न करें, क्योकि अभी तुरत प्रायः समागम नही होगा । पचास्तिकाय ग्रन्थका विचार ध्यानपूर्वक करें । ८२३ आणंद, पौष वदी १३, गुरु, १९५४ मगलवारको सुवह यहाँ आना हुआ था । प्राय कल सवेरे यहाँसे जाना होगा । मोरवी जाना सभव है । مع सर्व मुमुक्षु बहनो और भाइयोंको स्वरूपस्मरण कहियेगा । श्री सोभागकी विद्यमानतामे कुछ पहलेसे सूचित किया जाता था, और अभी वैसा नही हुआ, ऐसी किसी भी लोकदृष्टिमे पड़ना योग्य नही है । अविपमभावके बिना हमे भी अवधताके लिये दूसरा कोई अधिकार नही है । मौन रहना योग्य मार्ग है। लि० रायचंद्र मोरवी, माघ सुदी ४, बुध, १९५४ ૮૨૪ ॐ मुनियोको विज्ञप्ति कि— शुभेच्छासे लेकर क्षीणमोहपयंन्त सत्श्रुत ओर सत्समागमका सेवन करना योग्य है । सर्वकालमे जीवके लिये इस साधनको दुर्लभता है । उसमे फिर ऐसे कालमे दुर्लभता रहे यह यथासंभव है । दु पमकाल और 'हुडावसर्पिणी' नामका आश्चर्यभाव अनुभवसे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने जैसा है । आत्मश्रेयके इच्छुक पुरुषको उससे क्षुब्ध न होकर वारंवार उस योगपर पैर रखकर सत्श्रुत, सत्समागम और सद्वृत्तिको बलवान करना योग्य है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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