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________________ ३० वो वर्ष ६१३ अनन्त आदिसे भेद पडता है, अर्थात् जहाँ अल्प प्रदेशबध कहा हो वहाँ परमाणु अनन्त समझें, परन्तु उस अनन्तको सघनता अल्प समझे । यदि उससे विशेष-विशेप लिखा हो तो अनन्तताकी सघनता समझे । जरा भी व्याकुल न होते हुए कर्मग्रन्थको आद्यत पढें और विचारें। | ওওও ईडर, वैशाख वदी १२, शुक्र, १९५३ तथारूप (यथार्थ) आप्त (जिसके विश्वाससे मोक्षमार्गमे प्रवृत्ति की जा सके ऐसे) पुरुषका जीवको समागम होनेमे किसी एक पुण्यहेतुकी जरूरत है, उसकी पहचान होनेमे महान पुण्यकी जरूरत है, और उसकी आज्ञाभक्तिसे प्रवृत्ति करनेमे महान महान पुण्यकी जरूरत है, ऐसे जो ज्ञानीके वचन हैं, वे सत्य है। यह प्रत्यक्ष अनुभवमे आने जैसी बात है । ___ तथारूप आप्तपुरुषके अभाव जैसा यह काल चल रहा है । तो भी ऐसे समागमके इच्छुक आत्मार्थी जीवको उसके अभावमे भी विशुद्धिस्थानकके अभ्यासका लक्ष्य अवश्य ही कर्तव्य है। ७७८ ईडर, वैशाख वदी १२, शुक्र, १९५३ दो पत्र मिले हैं। यहाँ प्राय मगलवार तक स्थिति होगी। बुधवार शामको अहमदाबादसे डाकगाडीमे बंबई जानेके लिये बैठना होगा । प्रायः गुरुवार सवेरे बम्बई उतरना होगा। सर्वथा निराश हो जानेसे जीवको सत्समागनका प्राप्त हुआ लाभ भी शिथिल हो जाता है । सत्समागमके अभावका खेद रखते हुए भी सत्समागम हुआ है, यह परमपुण्यका योग है। इसलिये सर्वसगत्यागका योग बनने तक जब तक गृहस्थावासमे स्थिति हो तब तक उस प्रवृत्तिकी नीतिसहित कुछ भी रक्षा करके परमार्थमे उत्साहसहित प्रवृत्ति करके विशुद्धिस्थानकका नित्य अभ्यास करते रहना यही कर्तव्य है। ७७९ बंबई, ज्येष्ठ सुदी, १९५३ ॐ सर्वज्ञ स्वभावजागृतदशा । 'चित्रसारी न्यारी, परजंक न्यारी, सेज न्यारी। चादर भी न्यारी; इहाँ झूठी मेरी थपना ।। अतीत अवस्था सैन, निद्रावाहि कोऊ पै न । विद्यमान पलक न, यामै अब छपना ॥ स्वास औ सुपन दोऊ, निद्राको अलग बूझै । सूझै सब अंग लखि, आतम दरपना ॥ त्यागी भयौ चेतन, अचेतनता भाव त्यागि । भालै दृष्टि खोलिक, सभाले रूप अपना । १. भावार्थ-जव सम्यग्ज्ञान प्रगट हुआ तब जीव विचारता है-शरीरल्प महल जुदा है, कर्मरूप पलग जुदा है, मायारूप सेज जुदी है, कल्पनारूप चादर भी जुदी है, यह निद्रावस्या मेरी नही है '-पूर्वकालमें सोनेवाला मेरा दूसरा ही पर्याय था। अब वर्तमानका एक पल भी निद्रामे नही विताऊंगा। उदयका निश्वास और विषयका स्वप्न ये दोनो निद्राके सयोगसे दीखते थे। अब आत्मरूप दर्पणमें मेरे समस्त गुण दीखने लगे। इस प्रकार आत्मा अचेतन भावोका त्यागी होकर ज्ञानदृष्टिसे देवकर अपने स्वरूपको सम्भालता है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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