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________________ श्रीमद राजचन्द्र १२९ गतिकी प्राप्तिसे देह होती है, देहसे इन्द्रियाँ और इन्द्रियोसे विपय ग्रहण होता है, और उससे राग-द्वेष उत्पन्न होते है । ६०४ 7', १३०. ससारचक्रमे अशुद्ध भावसे परिभ्रमण करते हुए जीवोमेसे, कुछ जीवोका, ससार, अनादि सात है और किसीका अनादि अनन्त है ऐसा भगवान सर्वज्ञने कहा है । ग ॐ 7 १३. जिसके भावो अज्ञान, रागद्वेष और चित्तप्रसन्नता रहती है, उसके शुभ-अशुभ परिणाम होते है । '१३२ जीवको शुभ परिणामसे पुण्य होता है, और अशुभ परिणामसे पाप होता है । उससे शुभा शुभ पुद्गलके ग्रहणरूप कर्मत्व प्राप्त होता है । - # 1 १३३, १३४, १३५, १३६ १३७ तृपातुर, क्षुधातुर, रोगी अथवा अन्य दुखी मनके जीवको देखकर उसका दुख मिटाने की प्रवृत्ति की जाये उसे 'अनुकपा' कहते हैं । 7 " 11 7 1 १३८ क्रोध, मान, माया और लोभकी मीठाश जीवको क्षुभित करती है, और पाप भावको उत्पन्न करती है । १३९ बहुत प्रमादवाली क्रिया, चित्तकी मलिनता, इन्द्रिय-विषयमे लोलुपता; दूसरे जीवोको देना और उनको निदा करना इत्यादि आचरणोसे जीव 'पापास्रव' करता है ।. 'दुख १४० चार सज्ञा, कृष्णादि तीन लेश्या, इन्द्रियवशता, आर्त्त और रौद्र, ध्यान, दुष्ट भाववाली धर्म क्रिया मोह-ये भाव पापास्रव' है । १४१ इन्द्रियो कपाय और सज्ञाको जय करनेवाले कल्याणकारी मार्ग मे जीव जिस समय रहता है, उस समय उसके पापासवरूप छिद्रका निरोध हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये । १४२ जिनको सब द्रव्योमे राग, द्वेष और अज्ञान नही रहते, ऐसे सुख-दुखमे समदृष्टिके स्वामी निग्रंथ महात्माको शुभाशुभ आस्रव नही होता । १४३ जिस सयमीको योगोमे जब पुण्य-पापकी प्रवृत्ति नहीं होती तब उसको शुभाशुभ कर्मके कर्तृत्वका 'सवर' हो जाता है, 'निरोध' हो जाता है । 7 १४४ जो योगका निरोध करके तप करता है, वह निश्चयसे अनेक प्रकारके कर्मों की निर्जरा, करता है ! 1 " १४५ जो आत्मार्थका साधक सवर्रयुक्त होकर, आत्मस्वरूपको जानकर तद्रूप ध्यान करता है वह महात्मा साधु कर्मरजको झाड डालता है । " APP 2015 १४६ जिसको राग, द्वेष, मोह और योगपरिणमन नही है उसको शुभाशुभ कर्मोंको जलाकर भस्म करें देनेवाली व्यानरूपी अग्नि प्रगट होती है । " प 1-1-1-1 2 37 १४७, १४८, १४९, १५०, १५१ 6), '१५२ दर्शनज्ञानसे परिपूर्णं, अन्य द्रव्य के ससर्गसे रहित ऐसा ध्यान जो निर्जराहेतुसे करता है वह 13. """" महात्मा 'स्वभावसहित' है । 1 १५३ जो सवरयुक्त' सव कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ वेदनीय और आयुकर्म से रहित होता है, वह महात्मा उसी भवमे 'मोक्ष' जाता है । 1 १५४ जी का स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान दर्शन है । "उसके अनन्यमय आचरण ( शुद्ध निश्चयमय स्थिर स्वभाव ) को सर्वज्ञ वीतरागने 'निर्मल चारित्र' कहा है । १५५ वस्तुत आत्माका स्वभाव निर्मल ही है । गुण और पर्याय अनदिसे परसमयपरिणामीरूपसे परिणत हे उम दृष्टिसे अनिर्मल है । यदि वह आत्मा स्वसमय को प्राप्त हो'तो' कर्म व धसे रहित होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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