SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .३० वा वष. ' भव्य जीवोंको उस आचारमें प्रवृत्त करनेवाले आचार्य भगवान, द्वादशागके अभ्यासी " और "उस श्रुतका शब्द, अर्थ और रहस्यसे अन्य भव्य जीवोको, अध्ययन करानेवाले' उपाध्याय' भगवान, ' और 'मोक्षमार्गका आत्मजागृतिपूर्वक साधन करनेवाले साधु भगवानको मे परम भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। ॥ श्री ऋषभदेव श्री महावीरपर्यंत भरतक्षेत्रके "वर्तमान 'चौबीस तीर्थंकरोके 'परम उपकारका मै " 575 फलकले वारंवार स्मरण करता हूँ । [g] वर्तमानकालके चरम तीर्थंकरदेव श्रीमान वर्धमान जिनकी शिक्षा से अभी मोक्षमार्ग अस्तित्वमे है, उनके इस उपकारको सुविहित पुरुष वारवार आश्चर्यमय देखते हैं । कालदोषसे अपार श्रुतसागरके बहुतसे भागका विसर्जन होता गया और विन्दुमात्र अथवा अल्पमात्र वर्तमानमे विद्यमान हैं ! C 7 1 अनेक स्थलोके विसर्जन होनेसे, अनेक स्थलोमे स्थूल निरूपण रहा होनेसे निग्रंथ भगवानके उस श्रुतका पूर्णं लाभ, वर्तमान मनुष्योको इस क्षेत्रमे प्राप्त नही होता |-- ॐ वि - अनेक मतमतातर आदिके उत्पन्न होनेका हेतु भी यही है, और इसीलिये निर्मल - आत्मतत्त्वके अभ्यासी मँहात्माओकी अल्पता हो गई । 5 104 6 श्रुतके अल्प रह जानेपर भी, मतमतांतर अनेक होनेपर भी, समाधानके कितने ही साधन परोक्ष होनेपर भी, महात्मा पुरुषोके क्वचित् क्वचित् ही रहनेपर भी, हे आर्यजनो । सम्यग्दर्शन, श्रुतका रहस्यभूत परमपदका पथ, आत्मानुभव के हेतु, सम्यक्चारित्र और विशुद्ध आत्मध्यान आज भी विद्यमान है, यह परम हर्षका कारण है। 151 वर्तमानकालको नाम दु. षमकाल है ! इसलिये अनेक अतरायोंसे, प्रतिकूलतासे, साधनकी दुर्लभता होनेसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति दु खसे होती है, परंतु वर्तमानमे मोक्षमार्गका विच्छेद है, ऐसा' सोचनेकी 'जरूरत नही है । ७११ : पंचमकालमे हुए महर्षियोने भी ऐसा ही कहां है । तदनुसार भी यहाँ कहता हूँ । S 15h 5, 1. #627 7 सूत्र और दूसरे प्राचीन आचार्यों द्वारा तदनुसार रचे हुए अनेक शास्त्र विद्यमान है । सुविहित पुरुषोने तो, हितकारी बुद्धिसे ही रचे है । किन्ही मतवादी, हठवादी और शिथिलताके पोपर्क पुरुषोकी रची हुई कुछ पुस्तकें सूत्रसे अथवा जिनाचारसे, सेल, नः खाती हो और प्रयोजनकी मर्यादासे । बाह्य हों, उन पुस्तकोके उदाहरणसे-प्राचीन सुविहितः आचार्योक वचनोका उत्थापन करनेका प्रयत्न भवभीरू महात्मा नही करते; परन्तु उससे,उपकार होता है, ऐसा समझकर उनका बहुतः 'मान करते हुए, यथायोग्य सदुपयोग करते हैं। C प ि 기 I 11 जिनदर्शन मे - दिगबर, और श्वेताबर ये दो भेद मुख्य हैं । मतदृष्टिसे उनमे बड़ा अंतर देखनेमे आता है। तत्त्वदृष्टिसे जिनदर्शनमे वैसा विशेष भेद मुख्यतः परोक्ष है, जो प्रत्यक्ष कार्यभूत हो सके उनमें वैसा भेद नही है । इसलिये दोनो सम्प्रदायोमे उत्पन्न होनेवाले गुणवान पुरुष सम्यग्दृष्टिसे देखते है; और जेसे तत्त्वप्रतीतिका अन्तराय कम हो वैसे प्रवृत्ति करते है । د जैनाभाससे प्रवर्तित दुसरे अनेक मतमतातर हैं, उनके स्वरूपका निरूपण करते हुए भी वृत्ति सकुचित होती है। जिनमे मूल प्रयोजनका भान नही है, इतना ही नही परन्तु मूल प्रयोजनसे विरुद्ध पद्धतिका अवलंबन रहा है 'उन्हें 'मुनित्वका स्वप्न भी कहासे हो ' 'क्योकि 'मूल प्रयोजनको भूल कर क्लेशमे पड़े हैं, और अपनी पूज्यता' आदिके लिये जोवोको परमार्थमार्गमे अतराय करते हैं। 1-1) "" 1 वेमुनिका लिंग भी धारण किये हुए नही है, क्योकि स्वकपोलरचनासे उनकी सारी प्रवृत्ति है ।जिनागम अथवा आचार्यकी परपराका नाम मात्र उनके पास है, वस्तुत. तो वे उससे पराङ्मुख ही हैं ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy