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________________ ... ३० वॉ वर्ष ५८९ उस महात्मा पुरुषके गुणोकी अतिशयतासे, सम्यक्आचरणसे, परमज्ञानसे, परमशातिसे, परमनिवृत्तिसे मुमुक्षुजीवकी अशुभ वृत्तियाँ परावर्तित होकर शुभस्वभावको पाकर स्वरूपके प्रति मुडती जाती है। उस पुरुषके वचन आगमस्वरूप है, तो भी वारवार अपनेसे वचनयोगकी प्रवृत्ति न होनेसे तथा निरतर समागमका योग न बननेसे, तथा उस वचनका श्रवण स्मरणमे तादृश न रह सकनेसे; तथा बहुतसे भावोका स्वरूप जाननेमे परावर्तनकी जरूरत- होनेसे, और अनुप्रेक्षाके बलकी, वृद्धिके लिये वीतरागश्रुतवीतरागशास्त्र एक बलवान उपकारी साधन है, । यद्यपि-प्रथम तो वैसे महात्मापुरुषोके द्वारा ही उसका रहस्य जानना चाहिये, फिर विशुद्धदृष्टि हो जानेपर वह श्रुत महात्माके समागमके अंतरायमे भी बलवान, उपकार करता है, अथवा जहाँ केवल वैसे महात्माओका योग हो ही नहीं सकता, वहाँ भी विशुद्ध दृष्टिमानको वीतरागश्रुत' परमापकारी है, और इसीलिये महापुरुषोने एक लोंकसे लेकर द्वादशांग पर्यंत रचना की है। "... उस द्वादशागके मल उपदेष्टा सर्वज्ञ वीतराग है, कि जिनके स्वरूपका महात्मा पुरुष निरन्तर ध्यान करते हैं, और उस पदको प्राप्तिमे ही सर्वस्वं समाया-हुआ-है, ऐसा प्रतीतिसे अनुभव करते है। सर्वज्ञ वीतरागके वचनोको धारण करके महान आचार्योने द्वादशागीकी रचना की थी, और तदाश्रित आज्ञाकारी महात्माओने दूसरे अनेक निर्दोष शास्त्रोकी रचना की है । द्वादशागके नाम इस प्रकार है। . २(१). आचाराग,, (२) सूत्रकृताग; (३) स्थानाग, (४) समवायाग, (५) भगवती, (६) ज्ञाताधर्मकथाग, (७) उपासकदशाग, (८) अतकृतदशाग, (९) अनुत्तरौपपातिक, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११)-विपाक और-(१२) दृष्टिवाद | 7 : 5 7 ..,' : :: . उनमे इस प्रकारसे निरूपण है :- . .. ... कालदोषसे उनमेसे बहुतसे स्थलोका विसर्जन हो गया और मात्र अल्प स्थल रहे हैं।' १. जो अल्प स्थल रहे है उन्हे एकादशागके नामसे ‘श्वेताम्बर आचार्य कहते हैं। दिगम्बर इससे अनुमत न होते हुए यो कहते है कि :- . . . . .: ।:, : . । विसवाद या मताग्रहकी दृष्टिसे उसमे दोनो सम्प्रदाय भिन्न भिन्न मार्गकी भाँति देखनेमे आते है। दीर्घदृष्टिसे देखनेपर उसके भिन्न हो कारण देखनेमे आते है। ' चाहे जैसा हो, परतु इस प्रकारसे दोनो बहुत पासमे आ जाते हैं :विवादके अनेक स्थल तो अप्रयोजन जैसे हैं, प्रयोजन जैसे है वे भी परोक्ष हैं। श्रोताको व्यानयोग आदि भावोका उपदेश करनेसे नास्तिक आदि भाव उत्पन्न होनेका अवसर आता है, अथवा शुष्कज्ञानी होनेका अवसर आता है। . अब यह प्रस्तावना यहाँ सक्षिप्त करते है, ओर जिस महापुरुषनेयदि इस तरह सुप्रतीत हो तो - . . . "हिंसारहिए धम्भे अट्ठारस दोस विवज्जिए देवे। निग्गंथे पवयणे सद्दहणं होई सम्मत्तं ॥१॥ भावार्थ-हिंसारहित धर्म, अठारह दोपसि रहित देव और नियप्रवचनमें श्रद्धा करना सम्यक्त्व है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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