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________________ ५८७ ३० वो वर्ष इस जगतमे प्राणी मात्रकी व्यक्त अथवा अव्यक्त इच्छा भी यही है, कि किसी भी प्रकारसे मुझे दुख न हो, और सर्वथा सुख हो। इसीके लिये प्रयत्न होनेपर भी यह दुख क्यो नही मिटता ? ऐसा प्रश्न अनेकानेक विचारवानोको भी भूतकालमे हुआ था, वर्तमानकालमे भी होता है, और भविष्यकालमे भी होगा । उन अनतानत विचारवानोमेसे अनत विचारवानोने उसका यथार्थ समाधान पाया, और दु खसे मुक्त हुए। वर्तमानकालमे भी जो जो विचारवान यथार्थ समाधान प्राप्त करते हैं, वे भी तथारूप फलको पाते है और भविष्यकालमे भी जो जो विचारवान यथार्थ समाधान प्राप्त करेंगे वे सब तथारूप फल प्राप्त करेगे इसमे सशय नही है। शरीरका दु ख मात्र औषध करनेसे मिट जाता होता, मनका दु ख धन आदिके मिलनेसे दूर हो जाता होता, और बाह्य ससर्ग सम्बन्धी दु ख मनपर कुछ असर न डाल सकता होता तो दु ख मिटनेके लिये जो जो प्रयत्न किये जाते है वे सभी जीवोके प्रयत्न सफल हो जाते। परन्तु जब ऐसा होता दिखायी न दिया तभी विचारखानोको प्रश्न उत्पन्न हुआ कि दुःख मिटनेका कोई दूसरा ही उपाय होना चाहिये, यह जो उपाय किया जा रहा है वह अयथार्थ है, और सारा श्रम वृथा है । इसलिये उस दु खका मूल कारण यदि यथार्थरूपसे जाननेमे आ जाये और तदनुसार ही उपाय किया जाये, तो दुःख मिटता है, नही तो मिटता ही नही । जो विचारवान दु खके यथार्थ मूल कारणका विचार करनेके लिये कटिबद्ध हुए, उनमे भी किसीको ही उसका यथार्थ समाधान हाथ लगा और बहुतसे यथार्थ समाधान न पानेपर भी मतिव्यामोह आदि कारणोसे, वे यथार्थ समाधान पा गये है ऐसा मानने लगे और तदनुसार उपदेश करने लगे और बहुतसे लोग उनका अनुसरण भी करने लगे। जगतमे भिन्न भिन्न धर्ममत देखनेमे आते हैं उनकी उत्पत्तिका मुख्य कारण यही है। 'धर्मसे दु ख मिटता है', ऐसी बहुतसे विचारवानोकी मान्यता हुई । परन्तु धर्मका स्वरूप समझनेमें एक दूसरेमे बहत अन्तर पड गया । बहुतसे तो अपने मूल विषयको चूक गये, ओर बहुतसे तो उस विषयमे मतिके थक जानेसे अनेक प्रकारसे नास्तिक आदि परिणामोको प्राप्त हो गये। द खके मूल कारण और उनकी किस तरह प्रवृत्ति हुई, इसके सम्बन्धमे यहाँ थोडेसे मुख्य अभिप्राय सक्षेपमे बताते हैं। द ख क्या है ? उसके मूल कारण क्या हैं ? और वे किस तरह मिट सकते है ? तत्सबधी जिनो अर्थात् वीतरागोने अपना जो मत प्रदर्शित किया है उसे यहाँ सक्षेपमे कहते हे - अब, वह यथार्थ है या नही ? उसका अवलोकन करते है - जो उपाय बताये है वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं, अथवा तीनोका एक नाम 'सम्यक्मोक्ष' है। उन वीतरागोने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमे सम्यग्दर्शनकी मुख्यता अनेक स्थलोमें कमी के ययपि सम्यग्ज्ञानसे ही सम्यग्दर्शनकी भी पहचान होती है, तो भी सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान ससार अर्थात् दुःखका हेतुरूप होनेसे सम्यग्दर्शनकी मुख्यताको ग्रहण किया है। जोजो सम्यग्दर्शन शुद्ध होता जाता है. त्यो त्यो सम्यक्चारित्रके प्रति वीर्य उल्लसित होता जाता है और क्रमसे सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होनेका समय आ जाता है, जिससे आत्मामे स्थिर स्वभाव सिद्ध होता जाता है, और क्रमसे पूर्ण स्थिर स्वभाव प्रगट होता है, और आत्मा निजपदमे लीन होकर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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