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________________ प्रकाशकीय निवेदन 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थ मूल गुजराती भाषामे है। इसका प्रथम हिन्दी अनुवाद प० जगदीशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० कृत विक्रम संवत् १९४४ (ई० सन् १९३८) मे श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल द्वारा प्रकाशित हुआ था जो काफी समयसे अप्राप्य था। इस दौरान 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थका गुजरातीमे नवीन सशोधित परिवधित संस्करण वि० स० २००७ मे इसी आश्रम द्वारा प्रकाशित हुआ जिसका हिन्दी अनुवाद स्वतंत्र रूपसे करनेकी आवश्यकता थी। प्रसंगवशात् ललितपुरके प० परमेष्ठीदास जैनका आश्रममे आना हुआ। उनकी भावना एवं उत्साह देखकर उन्हे अनुवादका काम सौंपा गया। उन्होने आक ३७५ तक अनुवाद किया भी, परन्तु बादमे शारीरिक अस्वस्थताके कारण वे स्वेच्छासे इस अनुवादकी जिम्मेदारीसे मुक्त हुए। उसी अरसेमे संयोगवश श्री हंसराजजी जैनका परिचय हुआ और अनुवाद पूरा करनेके लिये उनसे कहा गया जिसे उन्होने सहर्ष एव सोत्साह मान्यकर, दृढ निष्ठा एव बड़े परिश्रमसे यह कार्य यथासम्भव शीघ्र ही पूरा कर दिया । संस्कृतमे एम० ए० होनेसे उनका सस्कृत भाषाका ज्ञान अच्छा था और मूल पजाबी होते हुए भी बरसोसे गुजरातमे रहनेसे उनका गुजराती भाषाका ज्ञान भी प्रशस्त था। इस प्रकार वि० स० २०३० मे इस ग्रन्थका सशोधित-परिवर्धित प्रथम हिन्दी सस्करण श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमके अन्तर्गत श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डलकी ओरसे दो भागोमे प्रगट हुआ। तत्पश्चात् सभी प्रतियां बिक जानेसे इसके पुनर्मुद्रणकी आवश्यकता प्रतीत हुई परन्तु शीघ्र मुद्रणके कारण प्रथम सस्करणमे काफी अशुद्धियाँ रह गई थी तथा अमुक जगह वाक्याश छूट गये थे अतः अनुवादको फिरसे मूलके साथ मिलान करना अत्यत जरूरी था। सद्भाग्यसे दो-तीन मुमुक्षुओने यह कार्य हाथमे लिया और सम्पूर्ण ग्रन्थको यथासम्भव शुद्ध कर दिया । उसीका परिणाम है कि आज हिंदीभाषी मुमुक्षुओके समक्ष वि० स० २००७ के आश्रम प्रकाशित गुजराती सस्करणके अनुसार ही यह द्वितीय हिन्दी सस्करण श्रीमद् राजचन्द्र आश्रमकी ओरसे प्रस्तुत हो रहा है। सन्दर्भकी दृष्टिसे दो भागके व्दले एक ही भागमे ग्रन्थ मुद्रित करना योग्य लगनेसे वैसा किया है । प्रथम सस्करणकी तरह इसमे भी मूल गुजराती काव्योके भावार्थ (छायामात्र अर्थ) पादटिप्पणीमे दिये हैं जिससे हिन्दीभाषी जिज्ञासु उन काव्योका सामान्य अर्थ समझ सके । विशेषार्थके जिज्ञासुओको "नित्यनियमादि पाठ (भावार्थ सहित)" का हिन्दी अनुवाद देखनेका अनुरोध है। लन्तमे लिखना है कि अनुवाद अनुवाद ही होता है, वह मूलकी समानता कभी नही कर सकता। यथासम्भव शुद्ध करनेका पूरा प्रयास करने पर भी कही पर आशय-भेद (अर्थस्खलना) हुआ हो अथवा त्रुटियाँ रह गई हो तो पाठकगण हमारे ध्यानमे लानेकी कृपा करे ताकि भविष्यमे उन्हे शुद्ध किया जा सके। पथका विशेष परिचय न देकर मूल गुजराती प्रथम एवं द्वितीय सस्करणको प्रस्तावनाओका हिन्दी-रूपान्तर ही दे दिया है जिससे ग्रन्थकर्ता, ग्रन्थका विषय तथा ग्रन्थकी संकलना एव उसका आधार इत्यादिका परिचय मिल ही जाता है। __ यह आत्मश्रेयसाधक ग्रन्थ मुमुक्षुवधुओको आत्मानन्दकी साधनामे सहायक सिद्ध हो यही प्रार्थना । श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास -प्रकाशक चैत्र गदी ५ २० २०४१ ,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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