SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 698
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० वो वर्ष ५७९ जाननेसे पहले उपालभ लिखना ठीक नही । तथा उपालभसे अक्ल ला देना मुश्किल है। अक्लकी वर्षा की जाती है तो भी इन लोगोकी रीति अभा रास्तेपर नही आती । वहाँ क्या उपाय ? . . उनके प्रति कोई दूसरा खेद करना व्यर्थ है। कर्मवधकी विचित्रता है इससे सभीको सच्ची बात समझमे नही आ सकती । इसलिये उनके दोषका क्या विचार करना?' ' ७४९ - ववाणिया, फागुन वदी ११, १९५३ त्रिभोवनको लिखी हुई चिट्ठी तथा सुणाव और पेटलादके पत्र मिले हैं। ' . 'कर्मग्रथ' का विचार करनेसे कषाय आदिका बहुतसा स्वरूप यथार्थ समझमे नही आता, वह विशेषत अनुप्रेक्षासे, त्यागवृत्तिके बलसे और समागमसे समझमे आने योग्य है। 'ज्ञानका फल विरति है' । वीतरागका यह वचन सभी मुमुक्षुओको नित्य स्मरणमे रखने योग्य है। जिसे पढनेसे, समझनेसे और विचारनेसे आत्मा विभावसे, विभावके कार्योसे और विभावके परिणामसे उदास न हुआ, विभावका त्यागी न हुआ, विभावके कार्योका और विभावके फलका त्यागी न हुआ, वह पढना, वह विचारना और वह समझना अज्ञान है। विचारवृत्तिके साथ त्यागवृत्तिको उत्पन्न करना यही विचार सफल है, यह ज्ञानीके कहनेका परमार्थ है। ___ समयका अवकाश प्राप्त करके नियमितरूपसे दो-से चार घडी तक मुनियोको अभी 'सूर्यगडाग' का विचार करना योग्य है-शात और विरक्त चित्तसे। । ७५०+ । ववाणिया, फागुन सुदी ६, सोम, १९५३ मुनि श्री लल्लुजो तथा देवकरणजी आदिके प्रति सहज समागम हो जाये अथवा ये लोग इच्छापूर्वक समागम करनेके लिये आते हो तो समागम करनेमे क्या हानि है ? कदाचित विरोधवृत्तिसे ये लोग समागम करते हो तो भी क्या हानि है ? हमे तो उनके प्रति केवल हितकारी वृत्तिसे, अविरोध दृष्टिसे समागममे भी , बर्ताव करना है। इसमे क्या पराभव है ? .मात्र उदीरणा करके समागम करनेका अभी कारण नहीं है। आप.सब मुमुक्षुओंके आचार सवधी उन्हे कोई सशय हो तो भी विकल्पका अवकाश नहीं है । वडवामे सत्पुरुपके समागममे गये आदि सवधी प्रश्न करें तो उसके उत्तरमे तो इतना ही कहना योग्य है कि "आप, हम और सब आत्महितकी कामनासे निकले है, और करने योग्य भी यही है । जिस पुरुषके समागममे हम आये है उसके समागममे आप कभी आकर प्रतीति कर देखें कि उनके आत्माकी दशा कैसी है ? और वे हमे कैसे उपकारी हे ? अभी आप इस बातको जाने दें। वडवा तक सहजमे भी जाना हो सकता है, और यह तो ज्ञान, दर्शन आदिके उपकाररूप प्रसगमे जाना हुआ है, इसलिये आचारकी' मर्यादाके भंगका विकल्प करना योग्य नहीं है। रागदेष परिक्षीण होनेका मार्ग जिस पुरुषके उपदेशसे कुछ भी समझमे आये, प्राप्त हो, उस पुरुपका उपकार कितना ? और वैसे पुरुषको कैसे भक्ति करनी, उसे आप ही शास्त्र आदिसे विचार कर देखे। हम तो वैसा कुछ नही कर सके क्योकि उन्होने स्वय यो कहा था कि - ' 'आपके मनिपनका सामान्य व्यवहार ऐसा है कि इस अविरति पुरुषके प्रति वाह्य वन्दनादि व्यवद्वार कर्तव्य नही है। उस व्यवहारको आप भी निभायें । उस व्यवहारको आप रखें इसमे आपका स्वच्छद नही है, इसलिये रखना योग्य है । बहुतसे जीवोको मशयका हेतु नही होगा । हमे कुछ वंदनादिकी अपेक्षा नहीं है।' इस प्रकारसे जिन्होने सामान्य व्यवहारको भी निभाया था, उनको दृष्टि कैसी होनी चाहिये, + देखें आक ५०२ । आफ ५०२ के उपनेके बाद यह पन मितिसहित सारा मिला है, इसलिये यहा फिरसे दिया है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy