SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 696
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० वॉ वर्ष ५७७ अभी डर जानेका विचार रखते हे। तैयार रहे। श्री डुगरको आनेके लिये विनती करें। उन्हे भी तैयार रखे । उनके चित्तमे यो आये कि वारवार जाना होनेसे लोकापेक्षामे योग्य नही दिखायी देता । क्योकि उम्र मे अंतर | परतु ऐसा विचार करना योग्य नही है । परमार्थदृष्टि पुरुषको अवश्य करने योग्य ऐसे समागमके लाभमे यह विकल्परूप अंतराय कर्तव्य नही है । इस वार समागमका विशेष लाभ होना योग्य है । इसलिये श्री डुगरको अन्य सभी विकल्प छोड़कर आनेका विचार रखना चाहिये । 1 श्री डुंगर तथा लहेराभाई आदि मुमुक्षुओको यथायोग्य | 'आनेके बारेमे श्री डुगरको कुछ भी सशय न रखना योग्य है । मोरबी, माघ वदी ४, रवि, १९५३ संस्कृतका परिचय न हो तो कीजियेगा । जिस तरह अन्य मुमुक्षुजीवोके चित्तमे और जगमे निर्मल भावकी वृद्धि हो उस तरह प्रवृत्ति कर्तव्य है । नियमित श्रवण कराया जाये तथा आरभ - परिग्रह के स्वरूपको सम्यक् प्रकार से देखते हुए, वे निवृत्ति और निर्मलताको कितने प्रतिबंधक है यह बात चित्तमे दृढ हो ऐसी परस्परमे ज्ञानकथा हो यह कर्तव्य है । ७४२ ७४३ मोरवी, माघ वदी ४, रवि, १९५३ " सकळ संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगुण आतमरामी रे । 7 मुख्यपणे जे आतमरामी, ते कहिये निष्कामी रे ॥ ' - मुनि श्री आनदघनजी तीनो पत्र मिले थे। अभी लगभग पन्द्रह दिनसे यहाँ स्थिति है। अभी यहाँ कुछ दिन और रहना संभव है । पत्राकांक्षा और दर्शनाकाक्षा मालूम हुई है । अभी पत्र आदि लिखनेमे बहुत ही कम प्रवृत्ति हो सकती है | समागमके बारेमे अभी कुछ भी उत्तर लिखना अशक्य है । श्री लल्लुजी और श्री देवकरणजी 'आत्मसिद्धिशास्त्र' का विशेषत भी प्रश्नव्याकरण आदि सूत्र सत्पुरुष के लक्ष्यसे सुनाये जायें तो सुनायें । मनन करें। दूसरे मुनियोको श्री सहजात्मस्वरूप से यथायोग्य | ७४४ ववाणिया, माघ वदी १२, शनि, १९५३ -- ते माट ऊभा करजोडी, जिनवर आगळ कहीए रे । समयचरण सेवा शुद्ध देजो, जेम आनदघन लहीए रे ॥ - मुनि श्री आनदघनजी 'कर्मग्रथ' नामका शास्त्र है, उसे अभी आदिसे अत तक पढनेका, सुननेका और अनुप्रेक्षा करनेका परिचय रख सकें तो रखियेगा । अभी उसे पढने और सुननेमे नित्य प्रति दो से चार घडा नियमपूर्वक व्यतीत करना योग्य है । १ भावार्थ-सथ ससारी जीव इन्द्रियतुसमें ही रमण करनेवाले है, और केवल मुनिजन ही आत्मरामी हैं । जो मुख्यतासे आत्मरामी होते हैं वे निष्कामी कहे जाते हैं । २ भावार्थ - इस कारण मे हाथ जोड खडा रहकर जितेंद्र भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे मुझे शास्त्रानुसार चारित्रको शुद्ध सेवा प्रदान करें, जिससे में आनदघन - मोक्ष प्राप्त करू
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy