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________________ ५७ ३० वो वर्ष आत्मस्थिरता अण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते, देहपर्यन्त जो घोर परीषह के उपसर्ग भये करी, आवो शके नही ते स्थिरतानो अंत जो॥ अपूर्व० ४॥ संयमना हेतुथी योगप्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिनआज्ञा आधीन जो; ते पण क्षण क्षणघटती जातो स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरूपमां लीन जो ॥ अपूर्व० ५॥ पंच विषयमां रागद्वेष विरहितता, पच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ, भाव प्रतिबघ वण, विचर उदयाधीन पण वीतलोभ जो ॥ अपूर्व० ६॥ क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दोनपणानु मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभ प्रत्ये नहीं लोभ समान जो॥ अपूर्व०७॥ बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वदे चक्री तथापि न मळे मान जो; वेह जा पण माया थाय न रोममां, . लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो ॥ अपूर्व०८॥ मन, वचन और कायाके तीन योगोकी प्रवृत्तिको निरुद्ध करके ध्यानमग्न होनेसे वह आत्मस्थिरता मुख्यत देहपर्यंत अखड बनी रहती है तथा घोर परिपहसे अथवा उपसर्गके भयसे उस स्थिरताका अन्त नही आ सकताऐसा अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥४॥ सयमके हेतुसे ही तीन योगोकी प्रवृत्ति होती है और वह भी जिनाज्ञाके अनुसार आत्मस्वरूपमें अखड स्थिर रहने के लक्ष्यसे होती है तथा वह प्रवृत्ति भी प्रति क्षण घटती हुई स्थितिमें होती है ताकि अन्तमे निजस्वरूपमें लीन हो जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥५॥ पाँच इन्द्रियो के विषयोमें रागद्वेष नही रहता, (१) इन्द्रिय (२) विकया, (३) कपाय, (४) स्नेह और (५) निद्रा इन पांच प्रमादोसे मनमें किसी प्रकारका क्षोभ नही होता तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके प्रतिवन्धक बिना ही लोभरहित होकर उदयवशात् विचरण होता है ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥६॥ क्रोधके प्रति क्रोध स्वभावता अर्थात् क्रोधके प्रति क्रोध करनेकी वृत्ति रहती है, मानके प्रति अपनी दीनताका मान होता है, मायाके प्रति साक्षीभावकी माया रहती है अर्थात् माया पनी हो तो साक्षीभावकी माया की जाये, लोभले पनि उसके समान लोभ नही रहता अर्थात् लोभ करना हो तो लोभ जैसा न हुआ जाये-लोभका लोभ न किया जाये । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा? ॥७॥ बत उपसर्ग करनेवालेके प्रति भी क्रोध नहीं आता, यदि चक्रवर्ती वदन करे तो भी लेश मात्र मान उत्पन्न नही होता, देहका नाश होता हो तो भी एक रोममें भी माया उत्पन्न नही होती, चाहे जैसी प्रवल आदिसिदि प्रगट हो तो भी उसका लेशमात्र लोन नहीं होता-ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥८॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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