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________________ ५७२ श्रीमद् राजचन्द्र उत्कृष्टसे उत्कृष्ट व्रत, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट तप, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट नियम, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट लब्धि, और उत्कृष्टसे उत्कृष्ट ऐश्वर्य ये जिसमे सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं ऐसे निरपेक्ष अविषम उपयोगको नमस्कार । यही ध्यान है। ७३६ ववाणिया, पौष सुदी ११, बुध, १९५३ रागद्वेषके प्रत्यक्ष बलवान निमित्त प्राप्त होनेपर भी जिनका आत्मभाव किंचित् मात्र भी क्षोभको प्राप्त नही होता, उन ज्ञानीके ज्ञानका विचार करते हुए भी महती निर्जरा होती है, इसमे सशय नही है। ७३७ ववाणिया, पौष वदी ४, शुक्र, १९५३ आरम्भ और परिग्रहका इच्छापूर्वक प्रसग हो तो आत्मलाभको विशेष घातक है, और वारवार अस्थिर एवं अप्रशस्त परिणामका हेतु है, इसमे तो सशय नही है, परन्तु जहाँ अनिच्छासे उदयके किसी एक योगसे वह प्रसग रहता हो वहाँ भी आत्मभावकी उत्कृष्टताको बाधक तथा आत्मस्थिरताको अतराय करनेवाला, वह आरम्भ-परिग्रहका प्रसग प्राय होता है, इसलिये परम कृपालु ज्ञानीपुरुषोने त्यागमार्गका उपदेश दिया है, वह मुमुक्षुजीवको देशसे और सर्वथा अनुसरण करने योग्य है। ७३८ ववाणिया, सं० १९५३* + अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थईशं बाह्यांतर निग्रंथ जो ? सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने, विचरशुकव महत्पुरुषने पंथ जो ? ॥ अपूर्व० १॥ सर्व भावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते सयमहेतु होय जो; अन्य कारणे अन्य कशु कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो ॥ अपूर्व० २॥ दर्शनमोह व्यतीत थई ऊपज्यो बोध जे, देह भिन्न केवल चैतन्यनु ज्ञान जो; तेथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकिये, । वत एवु शुद्धस्वरूपy ध्यान जो॥ अपूर्व० ३॥ - * इस काव्यका निर्णीत समय नही मिलता। भावार्थ-ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा कि जब मैं वाह्य तथा अभ्यतरसे निग्रंथ बनूँगा ? सर्व सवधोके वधनका तीक्ष्णतासे छेदनकर महापुरुषोके मार्गपर कब चलूगा ॥१॥ , मन सभी परभावोके प्रति सर्वथा उदासीन हो जाये, देह भी केवल सयमसाधनाके लिये ही रहे, किसी सासारिक प्रयोजनके लिये किसी भी वस्तुको इच्छा न करें, और फिर देहमें भी किंचित्मात्र मूर्छा न रहे । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥२॥ दर्शनमोह व्यतीत होकर देहसे भिन्न केवल चैतन्यस्वरूपका बोधरूप ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे चारित्रमोह प्रक्षीण हुआ दिखाई देता है, ऐसा शुद्ध स्वरूपका ध्यान जहाँ रहता है ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥३॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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