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________________ २९ वो वर्ष ५६५ गच्छ-मतकी जो कल्पना है वह सद्व्यवहार नहीं है, परन्तु आत्मार्थीके लक्षणोमे जो दशा कही है __ और मोक्षोपायमे जिज्ञासुके जो लक्षण आदि कहे हैं, वे सद्व्यवहार है, जिसे यहाँ तो सक्षेपमे कहा है। अपने स्वरूपका भान नही है, अर्थात् जिस तरह देह अनुभवमे आती है उस तरह आत्माका अनुभव नही हुआ है, देहाध्यास रहता है, और जो वैराग्य आदि साधन प्राप्त किये बिना निश्चय निश्चय चिल्लाया करता है, वह निश्चय सारभूत नही है ।।१३३।। आगळ ज्ञानी थई गया, वर्तमानमा होय। थाशे काळ भविष्यमां, मार्गभेद नहि कोय ॥१३४॥ भूतकालमे जो ज्ञानीपुरुष हो गये है, वर्तमानकालमे जो हैं, और भविष्यकालमे जो होगे, उनके मार्गमे कोई भेद नही है, अर्थात् परमार्थसे उन सबका एक मार्ग है, और उसे प्राप्त करने योग्य व्यवहार भी, उसी परमार्थके साधकरूपसे देश, काल आदिके कारण भेद कहा हो, फिर भी एक फलका उत्पादक होनेसे उसमे भी परमार्थसे भेद नही है ।।१३४॥ . सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय। सद्गुरुआज्ञा जिनदशा, निमित्त कारण मांय ॥१३५॥ सब जीवोमे सिद्धके समान सत्ता है, परन्तु वह तो जो समझता हे उसे प्रगट होती है। उसके प्रगट होनेमे ये दो निमित्त कारण हैं-सद्गुरुको आज्ञासे प्रवृत्ति करना और सद्गुरु द्वारा उपदिष्ट जिनदशाका विचार करना ॥१३५॥ उपादानतुं नाम लई, ए जे तजे निमित्त। पामे नहि सिद्धत्वने, रहे भ्रांतिमा स्थित ॥१३६॥ सद्गुरुकी आज्ञा आदि उस आत्मसाधनमे निमित्त कारण है, और आत्माके ज्ञान-दर्शन आदि उपादान कारण है, ऐसा शास्त्रमे कहा है, इससे उपादानका नाम लेकर जो कोई उस निमित्तका त्याग करेगा वह सिद्धत्वको प्राप्त नही करेगा, और भ्रातिमे रहा करेगा, क्योकि सच्चे निमित्तके निषेधके लिये शास्त्रमे उस उपादानकी व्याख्या नही कही है, परन्तु उपादानको अजाग्रत रखनेसे सच्चा निमित्त मिलनेपर भी काम नही होगा, इसलिये सच्चा निमित्त मिलनेपर उस निमित्तका अवलम्बन लेकर उपादानको सन्मुख करना और पुरुषार्थरहित नही होना ऐसा शास्त्रकारकी कही हुई व्याख्याका परमार्थ है ।।१३६|| मुखथी ज्ञान कथे अने, अंतर् छूट्यो न मोह। ते पामर प्राणी करे, मात्र ज्ञानीनो द्रोह ॥१३७॥ मुखसे निश्चय-प्रधान वचन कहता है, परतु अतरसे अपना ही मोह नही छूटा, ऐसा पामर प्राणी मात्र ज्ञानी कहलवानेकी कामनासे सच्चे ज्ञानीपुरुषका द्रोह करता है ॥१३७॥ दया, शाति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग, वैराग्य। होय मुमुक्षु घट विषे, एह सदाय सुजाग्य ॥१३८॥ दया, शाति, समता, क्षमा, सत्य, त्याग और वैराग्य ये गुण मुमुक्षुके घटमे सदा ही जाग्रत रहते हैं, अर्थात् इन गुणोके बिना मुमुक्षुता भी नही होती ।।१३८॥ मोहभाव क्षय होय ज्या, अथवा होय प्रशात। ते कहोए ज्ञानोदशा, वाकी कहीए भ्रांत ॥१३९॥ जहाँ मोहभावका क्षय हुआ हो, अथवा जहाँ मोहदशा अति क्षीण हुई हो, वहाँ ज्ञानीकी दशा कहो जाती है और बाकी तो जिसने अपनेमे ज्ञान मान लिया है उसे भ्राति कहते हैं ॥१३९|
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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