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________________ २९वों वर्षे ५६१ उसकी निवृत्ति है। तथा इस बातका सबको प्रत्यक्ष अनुभव है अथवा सभी इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं । क्रोधादि रोकनेसे रुकते है, और जो कर्मवधको रोकता है, वह अकर्मदशाका मार्ग है। यह मार्ग परलोकमे नही, परंतु यही अनुभवमे आता है, तो फिर इसमे सदेह क्या करना ? ॥१०४॥ छोडी मत दर्शन तणो, आग्रह तेम विकल्प। कह्यो मार्ग आ साधशे, जन्म तेहना अल्प ॥१०५॥ यह मेरा मत है, इसलिये मुझे इससे चिपटा ही रहना चाहिये, अथवा यह मेरा दर्शन है, इसलिये चाहे जैसे मुझे उसे सिद्ध करना चाहिये, ऐसे आग्रह अथवा ऐसे विकल्पको छोड़कर, यह जो मार्ग कहा है, इसका जो साधन करेगा, उसके अल्प जन्म समझना। यहाँ 'जन्म' शब्दका बहुवचनमे प्रयोग किया है, वह इतना ही बतानेके लिये कि क्वचित् वे साधन अधूरे रहे हो उससे, अथवा जघन्य या मध्यम परिणामकी धारासे आराधित हुए हो, उससे सर्व कर्मोका क्षय न हो सकनेसे दूसरा जन्म होना सभव है; परतु वे बहुत नही, बहुत ही अल्प । 'समकित आनेके पश्चात् यदि जीव उसका वमन न करे तो अधिकसे अधिक पद्रह भव होते है', ऐसा जिनेश्वरने कहा है, और 'जो उत्कृष्टतासे उसका आराधन करे उसका उसी भवमें भी मोक्ष होता है', यहाँ इस बातका विरोध नहीं है ।।१०५|| षट्पदनां षट्प्रश्न तें, पूछयां करी विचार। ते पदनी सर्वांगता, मोक्षमार्ग निर्धार ॥१०६॥ हे शिष्य | तूने छ पदोके छ प्रश्न विचार कर पूछे है, और उन पदोकी सर्वांगतामे मोक्षमार्ग है, ऐसा निश्चय कर । अर्थात् उसमेसे किसी भी पदका एकान्तसे या अविचारसे उत्थापन करनेसे मोक्षमार्ग सिद्ध नही होता ॥१०॥ जाति, वेषनो भेद नहि, कह्यो मार्ग जो होय । साधे ते मुक्ति लहे, एमां भेद न कोय ॥१०७॥ जो मोक्षका मार्ग कहा है, वह हो तो चाहे जिस जाति या वेपसे मोक्ष होता है, इसमे कोई भेद नहीं है । जो साधन करे वह मुक्तिपद पाता है, और उस मोक्षमे भी अन्य किसी प्रकारके ऊँच, नीच आदि भेद नहीं है, अथवा ये जो वचन कहे है उनमे कोई दूसरा भेद या अतर नही है ॥१०७॥ कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष । भवे खेद अंतर दया, ते कहोए जिज्ञास ॥१०॥ क्रोध आदि कषाय जिसके पतले पड गये हैं, जिसके आत्मामे मात्र मोक्ष पानेके सिवाय अन्य कोई इच्छा नही है, और ससारके भोगके प्रति उदासीनता रहती है, तथा अंतरमे प्राणियो पर दया रहती है, उस जीवको मोक्षमार्गका जिज्ञासु कहते है, अर्थात् उसे मार्ग प्राप्त करनेके योग्य कहते हैं ॥१०८|| ते जिज्ञासु जीवने, थाय सद्गुरुबोध । तो पामे समकितने, वर्ते अतरशोध ॥१०९।। उस जिज्ञासु जीवको यदि सद्गुरुका उपदेश प्राप्त हो जाये तो वह समकितको प्राप्त होता है, और अतरको शोधमे रहता है ॥१०९।। __ मत दर्शन आग्रह तजो, वर्ते सद्गुरुलक्ष । लहे शुद्ध समकित ते, जेमां भेद न पक्ष ॥११॥ मत और दर्शनका आगह छोड़कर जो सद्गुरुके लक्ष्यमे प्रवृत्त होता है, वह शुद्ध समकित पाता है कि जिसमे भेद तथा पक्ष नहीं है ॥११०॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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