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________________ ५५७ २९ वा वर्ष सामर्थ्य तदनुयायीरूपसे परिणमित होती है, और इससे जडकी धूप अर्थात् द्रव्य-कर्मरूप पुद्गलकी वर्गणाको वह ग्रहण करता है। (८२) । झेर सुधा समजे नही, जीव खाय फळ थाय। एम शुभाशुभ कर्मनु, भोक्तापणु जणाय ॥८३॥ विष और अमृत स्वय नही जानते कि हमे इस जीवको फल देना है, तो भी जो जीव उन्हे खाता है उसे वह फल होता है, इसी प्रकार शुभाशुभ कर्म ऐसा नही जानते कि इस जीवको यह फल देना है, तो भी उन्हे ग्रहण करनेवाला जीव विष-अमृतके परिणामकी तरह फल पाता है ।।८३।। विष और अमृत स्वय ऐसा नहीं समझते कि हमे खानेवालेको मृत्यु और दीर्घायु होती है, परन्तु जैसे उन्हे ग्रहण करनेवालेके प्रति स्वभावत उनका परिणमन होता है, वैसे जीवमे शुभाशुभ कर्म भी परिणमित होते है, और उसका फल प्राप्त होता है; इस तरह जीवका कर्मभोक्तृत्व समझमे आता है । (८३) एक रांक ने एक नृप, ए आदि जे भेद । कारण विना न कार्य ते, ते ज शुभाशुभ वेद्य ॥८४॥ एक रक है और एक राजा हे, ‘ए आदि' (इत्यादि) शब्दसे नीचता, उच्चता, कुरूपता, सुरूपता ऐसी बहुतसी विचित्रताएं है, और ऐसा जो भेद रहता है अर्थात् सवमे समानता नही है, यही शुभाशुभ कर्मका भोक्तृत्व है, ऐसा सिद्ध करता है, क्योकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती ||८४|| उस शुभाशुभ कर्मका फल न होता हो, तो एक रक और एक राजा, इत्यादि जो भेद हैं वे न होने चाहिये, क्योकि जीवत्व समान है, तथा मनुष्यत्व समान है, तो सवको सुख अथवा दुःख भी समान होना चाहिये, जिसके बदले ऐसी विचित्रता मालूम होती है, यही शुभाशुभ कर्मसे उत्पन्न हुआ भेद है; क्योकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इस तरह शुभ और अशुभ कर्म भोगे जाते है । (८४) फळदाता ईश्वरतणी, एमां नथी जरूर । कर्म स्वभावे परिणमे, थाय भोगयी दूर ॥८५॥ इसमे फलदाता ईश्वरकी कुछ जरूरत नहीं है । विष और अमृतकी भाँति शुभाशुभ कर्म स्वभावसे परिणमित होते हैं, और नि सत्त्व होने पर विष और अमृत फल देनेसे जैसे निवृत्त होते है, वैसे शुभाशुभ कर्मको भोगनेसे वे नि सत्त्व होनेपर निवृत्त हो जाते है ।।८५॥ विप विषरूपसे परिणमित होता है और अमृत अमृतरूपसे परिणमित होता है, उसी तरह अशुभ कर्म अशुभरूपसे परिणमित होता है और शुभ कर्म शुभरूपसे परिणमित होता है। इसलिये जीव जिस जिस प्रकारके अध्यवसायसे कर्मको ग्रहण करता है, उस उस प्रकारके विपाकरूपसे कर्म परिणमित होता है, और जैसे विष तथा अमृत परिणामी हो जानेपर नि:सत्त्व हो जाते है, वैसे भोगसे वे कर्म दूर होते हैं । (८५) ते ते भोग्य विशेषना, स्थानक द्रव्य स्वभाव। गहन वात छे शिष्य आ, कही संक्षेपे साव ॥८६॥ उत्कृष्ट शुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट शुभगति है, और उत्कृष्ट अशुभ अध्यवसाय उत्कृष्ट अशभगति है, शुभाशुभ अध्यवसाय मिश्र गति है, और वह जीवपरिणाम ही मुख्यतः तो गति है। तथापि उत्कृष्ट शुभ द्रव्यका ऊर्ध्वगमन, उत्कृष्ट अशुभ द्रव्यका अधोगमन, शुभाशुभकी मध्यस्थिति, ऐसा द्रव्यका विशेष स्वभाव है। और इत्यादि हेतुओसे वे वे भोगस्थान होने योग्य हैं। हे शिष्य । जड-चेतनके स्वभाव, सयोग आदि सूक्ष्म स्वरूपका यहाँ बहुतसा विचार समा जाता है, इसलिये यह वात गहन है, तो भी उसे एकदम सक्षेपमे कहा है ॥८६॥ तथा, यदि ईश्वर कर्मफलदाता न हो अथवा उसे जगतकर्ता न मानें तो कर्म भोगनेके विशेष स्थान अर्थात नरक आदि गति-स्थान कहाँसे हो, क्योकि उसमे तो ईश्वरके कर्तृत्वको आवश्यकता है, ऐसी
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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