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________________ ५५२ श्रीमद् राजचन्द्र तथा किसी भी वस्तुका किसी भी कालमे सर्वथा नाश तो होता ही नही है, मात्र अवस्थातर होता है, इसलिये चेतनका भी सर्वथा नाश नही होता । और यदि अवस्थातररूप नाश होता हो तो वह किसमे मिल जाता है ? अथवा किस प्रकारके अवस्थातरको प्राप्त करता है, उसकी खोज कर । अर्थात् घट आदि पदार्थ फूट जाते हैं, तब लोग ऐसा कहते है कि घटका नाश हुआ है, परतु कुछ मिट्टोपनका तो नाश नही हुआ। वह छिन्न-भिन्न होकर सूक्ष्मसे सूक्ष्म चूरा हो जाये, तो भी परमाणु समूहरूपसे रहता है परंतु उसका सर्वथा नाश नही होता, और उसमेसे एक परमाणु भी कम नही होता। क्योकि अनुभवसे देखते हुए अवस्थातर हो सकता है । परतु पदार्थका समूल नाश हो जाये, ऐसा भासित होने योग्य ही नही है । इसलिये यदि तू चेतनका नाश कहता है, तो भी सर्वथा नाश तो कहा ही नही जा सकता, अवस्थातररूप नाश कहा जा सकता है। जैसे घट फूटकर क्रमश. परमाणु-समूहरूपसे स्थितिमे रहता है, वैसे चेतनका अवस्थातररूप नाश तुझे कहना हो, तो वह किस स्थितिमे रहता है ? अथवा घटके परमाणु जैसे परमाणुसमूहमे मिल जाते है वैसे चेतन किस वस्तुमे मिलने योग्य है ? उसे खोज । अर्थात् इस तरह यदि तू अनुभव करके देखेगा तो किसीमे नही मिल सकने योग्य, अथवा परस्वरूपमे अवस्थातर नही पाने योग्य ऐ सा चेतन अर्थात् आत्मा तुझे भासमान होगा ||७०|| शका-शिष्य उवाच [आत्मा कर्मका कर्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है -] ___कर्ता जीव न कर्मनो, कर्म ज कर्ता कर्म। अथवा सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्म ॥७॥ ___जीव कर्मका कर्ता नही, कर्म ही कर्मका कर्ता है, अथवा कर्म अनायास होते रहते है। यदि ऐसा न हो, और जीव ही उनका कर्ता है, ऐसा कहे तो फिर वह जीवका धर्म ही है, अर्थात् धर्म होनेसे कभी निवृत्त नही हो सकता ॥७॥ आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध। - अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबंध ॥७२॥ अथवा ऐसा न हो, तो आत्मा सदा असंग है, और सत्त्व आदि गुणवाली प्रकृति कर्मका बध करती है । यदि ऐसा भी न हो तो जीवको कर्म करनेकी प्रेरणा ईश्वर करता है, इसलिये ईश्वरेच्छारूप होनेसे जीव उस कमसे 'अबंध' है ॥७२॥ माटे मोक्ष उपायनो, कोई न हेतु जणाय। . ___कर्मतणु कापणु, कां नहि, कां नहि जाय ॥७३॥ इसलिये जीव किसी तरह कमका कर्ता नही हो सकता, और मोक्षका उपाय करनेका कोई हेतु नही जान पडता। इसलिये या तो जीवको कर्मका कर्तृत्व नही है, और यदि कर्तृत्व है तो किसी तरह उसका वह स्वभाव मिटने योग्य नही है ॥७३॥ .. समाधान-सद्गुरु उवाच . : [ सद्गुरु समाधान करते हैं कि कर्मका कर्तृत्व आत्माको किरा तरह ह -] होय न चेतन प्रेरणा, कोण ग्रहे तो कर्म ?' जडस्वभाव, नहि प्रेरणा, 'जओ विचारी धर्म ॥७४॥ १. पाठान्तर-जुओ विचारी मर्म ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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