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________________ ५५० श्रीमद राजचन्द्र देहकी उत्पत्ति और देहके लयका ज्ञान जिसके अनुभवमे रहता है, वह उस देहसे भिन्न न हो तो किसी भी प्रकारसे देहकी उत्पत्ति और लयका ज्ञान नही होता। अथवा-जिसकी उत्पत्ति और लयको जो जानता है वह उससे भिन्न ही है, क्योकि वह उत्पत्तिलयरूप नही ठहरा, परंतु उसका जाननेवाला ठहरा । इसलिये उन दोनोकी एकता कैसे हो ? (६३) . जे सयोगो. देखिये, ते ते अनुभव दृश्य । - ' 'ऊपजे नहि सयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष ॥६४॥ ............ " जो जो सयोग हम देखते हैं वे सब अनुभवस्वरूप ऐसे आत्माके दृश्य है अर्थात् उन्हे आत्मा जानता है, और उन संयोगोंके स्वरूपका विचार करने पर ऐसा कोई भी सयोग समझमे नही आता कि जिससे आत्मा उत्पन्न होता है, इसलिये आत्मा सयोगसे उत्पन्न नही हुआ है, अर्थात् असयोगी है, स्वाभाविक पदार्थ है, इसलिये यह प्रत्यक्ष नित्य' समझमे आता है ।।६४|| । जो जो देह आदि सयोग दिखायी देते है वे सव अनुभवस्वरूप ऐसे आत्माके दृश्य है, अर्थात् आत्मा उन्हें देखता है, और जानता है, ऐसे पदार्थ है। उन सब सयोगोका विचारकर देखे, तो आपको किसी भी सयोगसे अनुभवस्वरूप आत्मा उत्पन्न हो सकने योग्य मालूम नहीं होगा। कोई भी सयोग आपको नही 'जानतें और आप उन सब सयोगोको जानते है, यही आपकी उनसे भिन्नता है, और असयोगिता अर्थात् उन संयोगोसे उत्पन्न न होना सहज ही सिद्ध होता है, और अनुभवमे आता है। इससे अर्थात् किसी भी संयोगसे जिसकी उत्पत्ति नही हो सकतो, कोई भी सयोग जिसकी उत्पत्तिके लिये अनुभवमे नही आ सकते, जिन जिन सयोगोकी कल्पना करे उनसे वह अनुभव भिन्न और भिन्न ही है, मात्र उनके ज्ञातारूपसे ही रहता है, उस अनुभवस्वरूप आत्माको आप नित्य अस्पृश्य अर्थात् जिसने उन संयोगोंके भावरूप स्पर्शको प्राप्त नहीं किया, ऐसा समझें । (६४) , जडथी चेतन ऊपजे, चेतनथी जड थाय। - ' एवो अनुभव कोईने, क्यारे कदीन थाय ॥६५॥ जडसे चेतन उत्पन्न हो, और चेतनसे ज़ड उत्पन्न हो ऐसा किसीको कही कभी भी अनुभव नहीं होताना६५।।,'' ..... कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय। " 17 - नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय ॥६६॥ . जिसकी उत्पत्ति किसी भी सयोगसे नही होती, उसका नाश भी किसीमे नही होता, इसलिये आत्मा त्रिकाल नित्य है ॥६६॥ . . . जा किसी भी सयोगसे उत्पन्न न हआ हो अर्थात अपने स्वभावसे जो पदार्थ सिद्ध हो, उसका लय दूसरे किसी भी , पदार्थमे नही होता, और यदि दूसरे पदार्थमे उसका लय होता हो, तो उसमेसे उसकी पहले उत्पत्ति होनी चाहिये थी, नही तो उसमे उसकी लयरूप एकता नही होती'। इसलिये आत्माको अनुत्पन्त और अविनाशी जानकर नित्य है ऐसी प्रतीति करना योग्य होगा । (६६) .., . क्रोधादि तरतम्यता, सादिकनी माय। ' __ पूर्वजन्म संस्कार ते, जीव-नित्यता त्याय ॥६७॥ ____ क्रोध आदि प्रकृतियोकी विशेषता सर्प आदि प्राणियोमे जन्मसे ही देखनेमे आती है, वर्तमान देहमे तो उन्होने वह अभ्यास नहीं किया, जन्मके साथ ही वह है, अर्थात् यह पूर्वजन्मका ही सस्कार है, जो पूर्वजन्म जीवकी-नित्यता सिद्ध करता है ॥६॥ - सर्पमे जन्मसे क्रोधकी विशेषता देखनेमे आती है, कबूतरमे जन्मसे ही अहिंसकता देखनेमे आती है, खटमल आदि जन्तुओको पकड़ते हुए उन्हे पकड़नेसे दुःख होता है ऐसी भयसज्ञा पहलेसे ही उनके
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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