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________________ २९ वॉ वर्ष ५४७ माटे छे नहि आतमा, मिथ्या मोक्ष उपाय । ए अन्तर शंका तणो, समजावो सदुपाय ॥४८॥ इसलिये आत्मा नही है, और जब आत्मा ही नही है तब उसके माक्षके लिये उपाय करना व्यर्थ है, इस मेरी अतरकी शकाका कुछ भी सदुपाय समझाइये अर्थात् समाधान हो तो कहिये ॥४८॥ ___ समाधान-सद्गुरु उवाच [ आत्माका अस्तित्व है ऐसा सद्गुरु समाधान करते हैं .-] भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान । पण ते बन्ने भिन्न छ, प्रगट लक्षणे भान ॥४९॥ देहाध्याससे अर्थात् अनादिकालसे अज्ञानके कारण देहका परिचय है, इससे आत्मा देह जैसा अर्थात् देहरूप हो तुझे भासित हुआ है, परतु आत्मा और देह दोनो भिन्न हैं, क्योकि दोनो भिन्न भिन्न लक्षणोसे प्रगट ज्ञानमे आते हैं ॥४९॥ | भास्यो देहाध्यासथी, आत्मा देह समान । पण ते बन्ने भिन्न छे, जेम असि ने म्यान ॥५०॥ ___ अनादिकालसे अज्ञानके कारण देहके परिचयसे देह ही आत्मा भासित हुआ है, अथवा देह जैसा आत्मा भासित हुआ है, परतु जैसे तलवार और म्यान, म्यानरूप लगते हुए भी दोनो भिन्न भिन्न है, वैसे आत्मा ओर देह दोनो भिन्न-भिन्न है ॥५०॥ जे द्रष्टा छे दृष्टिनो, जे जाणे छे रूप । अबाध्य अनुभव जे रहे, ते छे जीवस्वरूप ॥५१॥ वह आत्मा दृष्टि अर्थात् आँखसे कैसे दिखायी दे सकता है ? क्योकि वह तो उलटा उसको देखनेवाला है (अर्थात् आँखको देखनेवाला तो आत्मा ही है) । और जो स्थूल, सूक्ष्म आदि रूपको जानता है, और सबको बाधित करता हुआ जो किसीसे भी बाधित नही हो सकता, ऐसा जो शेष अनुभव है वह जीवका स्वरूप है ॥५१॥ छ इन्द्रिय प्रत्येकने, निज निज विषयनु ज्ञान । पाँच इंद्रीना विषयनु, पण आत्माने भान ॥५२॥ 'कर्णेन्द्रियसे जो सुना उसे वह कर्णेन्द्रिय जानती है, परतु चक्षुरिन्द्रिय उसे नही जानती, और चक्षरिन्द्रियने जो देखा उसे कर्णेन्द्रिय नही जानती। अर्थात् सभी इन्द्रियोको अपने अपने विषयका ज्ञान है, परन्तु दूसरी इन्द्रियोके विषयका ज्ञान नही है, और आत्माको तो पांचो इन्द्रियोके विषयका ज्ञान है। अर्थात जो उन पांचो इन्द्रियोके द्वारा ग्रहण किये हुए विषयको जानता है वह 'आत्मा' है, और आत्माके बिना एक एक इन्द्रिय एक एक विषयको ग्रहण करती है ऐसा जो कहा है, वह भी उपचारसे कहा है ॥५२॥ देह न जाणे तेहने, जाणे न इन्द्री, प्राण। ___ आत्मानी सत्ता वडे, तेह प्रवर्ते जाण ॥५३॥ देह उसे नही जानती, इन्द्रियां उसे नही जानती, और श्वासोच्छ्वासरूप प्राण भी उसे नहीं जानता, वे सब एक आत्माकी सत्ता पाकर प्रवृत्ति करते हैं, नही तो वे जडरूप पड़े रहते हैं, ऐसा तू समझ ॥५३॥ सर्व अवस्थाने विषे, न्यारो सदा जणाय । प्रगटरूप चैतन्यमय, ए एंघाण सवाय ॥५४॥ १ पाठावर-कान न जाणे आँखने, नांख न जाणे कान,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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