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________________ २९ धो वर्ष ५३९ वर्तमानमे उसका स्फुरित होना सम्भव है। तीर्थकर आदिको 'स्वयबुद्ध' कहा है वे भी पूर्वकालमे तीसरे भवमे सद्गुरुसे निश्चय समकितको प्राप्त हुए है, ऐसा कहा है। अर्थात् जो स्वयबुद्धता कही है वह वर्तमान देहकी अपेक्षासे कही है, और उसे सद्गुरुपदके निपेधके लिये कहा नही है। और यदि सद्गुरुपदका निषेध करे तो तो 'सदेव, सद्गुरु और सद्धर्मकी प्रतीतिके बिना समकित नही होता,' यह कथन मात्र ही हुआ। अथवा जिस शास्त्रका आप प्रमाण लेते है वह शास्त्र सद्गुरु ऐसे जिनेन्द्रका कहा हुआ है, इसलिये उसे प्रामाणिक मानना योग्य है ? अथवा किसी असद्गुरुका कहा हुआ है इसलिये प्रामाणिक मानना योग्य है ? यदि असद्गुरुके शास्त्रोको भी प्रामाणिक माननेमे बाधा न हो तो फिर अज्ञान और रागद्वेषका आराधन करनेसे भी मोक्ष होता है, ऐसा कहनेमे बाधा नहीं है, यह विचारणीय है। _ 'आचाराग सूत्र' (प्रथम श्रुत स्कध, प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशमे, प्रथम वाक्य) मे कहा है :क्या यह जीव पूर्वसे आया है ? पश्चिमसे आया है ? उत्तरसे आया है ? दक्षिणसे आया है ? अथवा ऊपरसे आया है ? नीचेसे या किसी दूसरी दिशासे आया है ? ऐसा जो नही जानता वह मिथ्यादृष्टि है, जो जानता है वह सम्यग्दृष्टि है। उसे जाननेके तीन कारण है-(१) तीर्थकरका उपदेश (२) सद्गुरुका उपदेश और (३) जातिस्मरणज्ञान । यहाँ जो जातिस्मरणज्ञान कहा है वह भी पूर्वकालके उपदेशकी सधि है। अर्थात् पूर्वकालमे उसे बोध होनेमे सद्गुरुका असम्भव मानना योग्य नही है । तथा जगह जगह जिनागममे ऐसा कहा है कि - "गुरुणो छदाणुवत्तगा' अर्थात् गुरुकी आज्ञानुसार चलना । गुरुकी आज्ञाके अनुसार चलनेसे अनत जोव सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते है और सिद्ध होगे । तथा कोई जीव अपने विचारसे बोधको प्राप्त हुआ, उसमे प्राय पूर्वकालका सद्गुरुका उपदेश कारण होता है। परंतु कदाचित् जहाँ वैसा न हो वहाँ भी वह सद्गुरुका नित्य अभिलाषी रहते हुए, सद्विचारमे प्रेरित होते होते स्वविचारसे आत्मज्ञानको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना योग्य है, अथवा उसे कुछ सद्गुरुकी उपेक्षा नही हे और जहाँ सद्गुरुकी उपेक्षा रहती है वहाँ मानका सम्भव है, और जहाँ सद्गुरुके प्रति मान हो वहाँ कल्याण होना कहा है अथवा उसे सद्विचारके प्रेरित करनेका आत्मगुण कहा है। तथारूप मान आत्मगुणका अवश्य घातक है । बाहुबलोजीमे अनेक गुणसमूह विद्यमान होते हुए भी छोटे अट्ठानवे भाइयोको वदन करनेमे अपनी लघुता होगी, इसलिये यही ध्यानमे स्थित हो जाना योग्य है, ऐसा सोचकर एक वर्ष तक निराहाररूपसे अनेक गुणसमुदायसे आत्मध्यानमे रहे, तो भी आत्मज्ञान नही हुआ । बाकी दूसरी सब प्रकारको योग्यता होनेपर भी एक इस मानके कारणसे वह ज्ञान रुका हुआ था। जब श्री ऋषभदेव द्वारा प्रेरित ब्राह्मी और सुन्दरी सतियोने उनसे उस दोषका निवेदन किया और उस दोषका उन्हे भान हुआ, तथा उस दोपकी उपेक्षा कर उसकी असारता उन्हे समझमे आयी तब केवलज्ञान हुआ। वह मान ही यहाँ चार घनघाती कर्मोंका मूल होकर रहा था। और बारह बारह महीने तक निराहाररूपसे, एक लक्ष्यमे, एक आसनसे आत्मविचारमे रहनेवाले ऐसे पुरुषको इतनेसे मानने वैसी बारह महीनेकी दशाको सफल न होने दिया, अर्थात् उस दशासे मान समझमे न आया और जब सद्गुरु ऐसे श्री ऋषभदेवने 'वह मान हैं' ऐमा प्रेरित किया तब एक मुहूतमे वह मान जाता रहा, यह भी सद्गुरुका ही माहात्म्य प्रदर्शित किया है। फिर सारा मार्ग ज्ञानीकी आज्ञामे निहित है, ऐसा वारवार कहा है। 'आचारागसूत्र' मे कहा है कि-सधर्मास्वामी जवस्वामीको उपदेश करते है कि जिसने सारे जगतका दर्शन किया है, ऐसे महावीर १. सूरकताग, प्रथम श्रुतस्कघ, द्वितीय अध्ययन उद्देश २, गा० ३२ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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