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________________ ५२६ श्रीमद राजचन्द्र नजर दौडानेसे वैसा पुरुष ध्यानमे नही आता, इसलिये लिखनेवालेकी ओर ही कुछ नजर जाती है, परतु लिखनेवालेका जन्मसे लक्ष्य ऐसा है कि इसके जैसा एक भी जोखिमवाला पद नही है, और जब तक अपनी उस कार्यकी यथायोग्यता न हो तब तक उसकी इच्छा मात्र भी नही करनी चाहिये, और बहुत करके । अभी तक वैसा ही वर्तन किया गया है। मार्गका यत्किंचित् स्वरूप किसी-किसीको समझाया है, तथापि किसीको एक भी व्रतपच्चक्खान दिया नही है, अथवा तुम मेरे शिष्य हो और हम गुरु हैं, ऐसा प्रकार प्रायः प्रदर्शित हुआ नही है। कहनेका हेतु यह है कि सर्वसंगपरित्याग होनेपर उस कार्यकी प्रवृत्ति सहजस्वभावसे उदयमे आये तो करना, ऐसी मात्र कल्पना है। उसका वास्तवमे आग्रह नही है, मात्र अनुकंपा आदि तथा ज्ञानप्रभाव है, इससे कभी-कभी वह वृत्ति उद्भवित होती है, अथवा अल्पाशमे वह वृत्ति अतरमे है, तथापि वह स्ववश है । हमारी धारणाके अनुसार सर्वसगपरित्यागादि हो तो हजारो मनुष्य मूलमार्गको प्राप्त करें, और हजारो मनुष्य उस सन्मार्गका आराधन करके सद्गतिको प्राप्त करें, ऐसा हमारे द्वारा होना सम्भव है। हमारे सगमे अनेक जीव त्यागवृत्तिवाले हो जाये ऐसा हमारे अतरमे त्याग है। धर्म स्थापित करनेका मान बड़ा है, उसकी स्पृहासे भी कदाचित् ऐसी वृत्ति रहे, परन्तु आत्माको बहुत बार कसकर देखनेसे उसको सम्भावना वर्तमान दशामे कम ही दीखती है, और किंचित् सत्तामे रही होगी तो वह क्षीण हो जायेगी, ऐसा अवश्य भासित होता है, क्योकि यथायोग्यताके बिना, देह छूट जाये वैसी दृढ कल्पना हो तो भी, मार्गका उपदेश नही करना, ऐसा आत्मनिश्चय नित्य रहता है। एक इस बलवान कारणसे परिग्रह आदिका त्याग करनेका विचार रहा करता है। मेरे मनमे ऐसा रहता है कि वेदोक्त धर्म 'प्रकाशित या स्थापित करना हो तो मेरी दशा यथायोग्य है। परतु जिनोक्त धर्म स्थापित करना हो तो अभी तक उतनी योग्यता नही है, फिर भी विशेष योग्यता है ऐसा लगता है। . ७०९ राळज, भादो, १९५२ १ हे नाथ | या तो धर्मोन्नति करनेकी इच्छा सहजतासे शात हो जाओ; या फिर वह इच्छा अवश्य कार्यरूप हो जाओ। अवश्य कार्यरूप होना बहुत दुष्कर दिखाई देता है, क्योकि छोटी छोटी बातोमे मतभेद बहुत हैं, और उनकी जडें बहुत गहरी हैं। मूलमार्गसे लोग लाखो कोस दूर हैं, इतना ही नही परन्तु मूलमार्गकी जिज्ञासा उनमे जगानी हो, तो भी दीर्घकालका परिचय होनेपर भी उसका जगना कठिन हो ऐसी उनकी दुराग्रह आदिसे जडप्रधानदशा हो गई है। २. उन्नतिके साधनोकी स्मृति करता हूँ:बोधबीजके स्वरूपका निरूपण मूलमार्गके अनुसार जगह-जगह हो । जगह जगह मतभेदसे कुछ भी कल्याण नही है, यह बात फैले । प्रत्यक्ष सद्गुरुकी आज्ञासे धर्म है, यह बात ध्यानमे आये। द्रव्यानुयोग-आत्मविद्याका प्रकाश हो । त्याग वैराग्यकी विशेषतापूर्वक साधु विचरें। नवतत्त्वप्रकाश । साधुधर्मप्रकाश । श्रावकधर्मप्रकाश। विचार । अनेक जीवोको प्राप्ति ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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