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________________ ५२२ श्रीमद् राजचन्द्र जिसकी इद्रियाँ आदि शांत नही हुई, ज्ञानीपुरुषकी दृष्टिमे अभी जो त्याग करनेके योग्य नही है, ऐसे मद वैराग्यवान अथवा मोहवैराग्यवानके लिये त्यागको अपनाना प्रशस्त ही है, ऐसा कुछ जिनसिद्धात नही है। पहलेसे ही जिसे सत्सगादिक योग न हो, तथा पूर्वकालके उत्तम संस्कारयुक्त वैराग्य न हो वह पुरुष कदाचित् आश्रमपूर्वक प्रवृत्ति करे तो इससे उसने एकात भूल की है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, यद्यपि उसे भी रातदिन उत्कृष्ट त्यागकी जागृति रखते हुए गृहस्थाश्रम आदिका सेवन करना प्रशस्त है। उत्तम संस्कारवाले पुरुष गृहस्थाश्रमको अपनाये बिना त्याग करें, उससे मनुष्यप्राणीकी वृद्धि रुक जाये, और उससे मोक्षसाधनके कारण रुक जाये, यह विचार करना अल्पदृष्टिसे योग्य दिखायी दे, क्योकि प्रत्यक्ष मनुष्यदेह जो मोक्षसाधनका हेतु होती थी उसे रोककर पुत्रादिकी कल्पनामे पडकर, फिर वे मोक्षसाधनका आराधन करेंगे ही ऐसा निश्चय करके उनकी उत्पत्तिके लिये गृहस्थाश्रममे पडना, और फिर उनकी उत्पत्ति होगी यह भी मान लेना और कदाचित् वे सयोग हुए तो जैसे अभी पुत्रोत्पत्तिके लिये इस पुरुषको रुकना पड़ा था वैसे उसे भी रुकना पडे, इससे तो किसीको उत्कृष्ट त्यागरूप मोक्षसाधन प्राप्त होनेके योगको न आने देने जैसा हो । और किसी किसी उत्तम संस्कारवान पुरुषके गृहस्थाश्रम प्राप्तिके पूर्वके त्यागसे वंशवृद्धि न हो ऐसा विचार करें तो वैसे उत्तम पुरुषके उपदेशसे अनेक जीव जो मनुष्य आदि प्राणियोका नाश करनेसे नही डरते, वे उपदेश पाकर वर्तमानमे उस प्रकार मनुष्य आदि प्राणियोका नाश करनेसे क्यो न रुकें ? तथा शुभवृत्ति होनेसे फिर मनुष्यभव क्यो न प्राप्त करें? और इस तरह मनुष्यका रक्षण तथा वृद्धि भी सभव है। अलोकिक दृष्टिमे तो मनुष्यकी हानि-वृद्धि आदिका मुख्य विचार नही है, कल्याण-अकल्याणका मुख्य विचार है । एक राजा यदि अलौकिक दृष्टि प्राप्त करे तो अपने मोहसे हजारो मनुष्य प्राणियोका युद्धमे नाश होनेका हेतु देखकर बहुत बार बिना कारण वैसे युद्ध उत्पन्न न करे, जिससे बहुतसे मनुष्योका बचाव हो और उससे वशवृद्धि होकर बहुतसे मनुष्य बढे ऐसा विचार भी क्यो न किया जाये ? इंद्रियाँ अतृप्त हो, विशेष मोहप्रधान हो, मोहवैराग्यसे मात्र क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हुआ हो और यथातथ्य सत्सगका योग न हो तो उसे दीक्षा देना प्राय प्रशस्त नही कहा जा सकता, ऐसा कहे तो विरोध नही। परन्तु उत्तम संस्कारयुक्त और मोहाध, ये सब गृहस्थाश्रम भोगकर ही त्याग करें ऐसा प्रतिबन्ध करनेसे तो आयु आदिको अनियमितता, योग प्राप्त होनेपर उसे दूर करना इत्यादि अनेक विरोधोसे मोक्षसाधनका नाश करने जैसा होता है, और जिससे उत्तमता मानी जाती थी वह न हुआ, तो फिर मनुष्यभवकी उत्तमता भी क्या है ? इत्यादि अनेक प्रकारसे विचार करनेसे लौकिक दृष्टि दूर होकर अलौकिक दृष्टिसे विचार-जागृति होगी। __ वडके बडवट्टे या पीपलके गोदेको वशवृद्धि के लिये उनका रक्षण करनेके हेतुसे कुछ उन्हें अभक्ष्य नही कहा है। उनमे कोमलता होती है, तब अनन्तकायका सम्भव है। इससे तथा उनके बदले दूसरी अनेक वस्तुओसे चल सकता है, फिर भी उसीका ग्रहण करना, यह वृत्तिकी अति क्षुद्रता है, इसलिये अभक्ष्य कहा है, यह यथातथ्य लगने योग्य है। पानीकी बूंदमे असख्यात जोव हैं, यह बात सच्चो है, परन्तु वैसा पानी पीनेसे पाप नही है ऐसा नहीं कहा। फिर उसके बदले गृहस्थ आदिको दूसरी वस्तुसे चल नही सकता, इसलिये अगीकार किया जाता है, परन्तु साधुको तो वह भी लेनेकी आज्ञा प्राय नही दी है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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