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________________ २९ वाँ वर्ष ६९५ ५१३ बबई, आषाढ सुदी ५, बुध, १९५२ श्री सहजानन्दके वचनामृतमे आत्मस्वरूपके साथ अहर्निश प्रत्यक्ष भगवानकी भक्ति करना, और वह भक्ति 'स्वधर्म'मे रहकर करना, इस तरह जगह जगह मुख्यरूपसे बात आती है। अब यदि 'स्वधर्म' शब्दका अर्थ 'आत्मस्वभाव' अथवा 'आत्मस्वरूप' होता हो तो फिर 'स्वधर्मसहित भक्ति करना' यह कहनेका क्या कारण ? ऐसा आपने लिखा उसका उत्तर यहाँ लिखा है - स्वधर्ममे रहकर भक्ति करना ऐसा बताया है, वहाँ 'स्वधर्म' शब्दका अर्थ 'वर्णाश्रम धर्म' है । जिस ब्राह्मण आदि वर्णमे देह धारण हुआ हो, उस वर्णका श्रुति-स्मृतिमे कहे हुए धर्मका आचरण करना, यह 'वर्णधर्म' है, और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमके क्रमसे आचरण करनेकी जो मर्यादा श्रुति-स्मृतिमे कही है, उस मर्यादासहित उस उस आश्रममे प्रवृत्ति करना, यह 'आश्रमधर्म' है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण है, तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यस्त ये चार आश्रम हैं। ब्राह्मणवर्णमे इस प्रकारसे वर्णधर्मका आचरण करना, ऐसा श्रुति-स्मृतिमे कहा हा उसके अनुसार ब्राह्मण आचरण करे तो 'स्वधर्म' कहा जाता है। और यदि वैसा आचरण न करते हुए क्षत्रिय आदिके आचरण करने योग्य धर्मका आचरण करे तो 'परधर्म' कहा जाता है । इस प्रकार जिस जिस वर्णमे देह धारण हुआ हो, उस उस वर्णके श्रुति-स्मृतिमे कहे हुए धर्मके अनुसार प्रवृत्ति करना, इसे 'स्वधर्म कहा जाता है, और दूसरे वर्णके धर्मका आचरण करे तो 'परधर्म' कहा जाता है। उसी तरह आश्रमधर्म सम्बन्धी भी स्थिति है । जिन वर्णों को श्रुति-स्मृतिमे ब्रह्मचर्य आदि आश्रमसहित प्रवृत्ति करनेके लिये कहा है, उस वर्णमे प्रथम चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्याश्रममे रहना, फिर चौबीस वर्ष तक गृहस्थाश्रममे रहना, क्रमसे वानप्रस्थ और सन्यस्त आश्रममे आचरण करना, इस प्रकार आश्रमका सामान्य क्रम है। उस उस आश्रममे आचरण करनेकी मर्यादाके समयमे दूसरे आश्रमके आचरणको ग्रहण करे तो वह 'परधर्म' कहा जाता है, और उस उस आश्रममे उस उस आश्रमके धर्मोका आचरण करे तो वह 'स्वधर्म' कहा जाता है। इस प्रकार वेदाश्रित मार्गमे वर्णाश्रम धर्मको 'स्वधर्म' कहा है, उस वर्णाश्रम धर्मको यहाँ 'स्वधर्म' शब्दसे समझना योग्य है, अर्थात् सहजानदस्वामीने वर्णाश्रम धर्मको यहाँ 'स्वधर्म' शब्दसे कहा है। भक्तिप्रधान सम्प्रदायोमे प्राय भगवद्भक्ति करना, यही जीवका 'स्वधर्म' है. ऐसा प्रतिपादन किया है, परतु उस अर्थमे यहाँ 'स्ववर्म' शब्द नही कहा है, क्योकि भक्ति 'स्वधर्म' मे रहकर करना, ऐसा कहा है, इसलिये स्वधर्मका भिन्नरूपसे ग्रहण किया है, और वह वर्णाश्रम धर्मके अर्थमे ग्रहण किया है । जीवका 'स्वधर्म' भक्ति है, यह बतानेके लिये तो भक्ति शब्दके बदले क्वचित् ही इन सम्प्रदायोमे स्वधर्म शब्दका ग्रहण किया है, और श्री सहजानदके वचनामृतमे भक्तिके बदले स्वधर्म शब्द सज्ञावाचकरूपसे भी प्रयुक्त नहीं किया है, श्री वल्लभाचार्यने तो क्वचित् प्रयुक्त किया है। ६९६ ववई, आषाढ वदो ८, रवि, १९५२ भुजा द्वारा जो स्वयंभूरमणसमुद्रको तर गये, तरते हे और तरेंगे, उन सत्पुरुषोको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार आपने सहज विचारके लिये जो प्रश्न लिखे थे, वह पत्र प्राप्त हुआ था। एक धारासे वेदन करने योग्य प्रारब्धका वेदन करते हुए कुछ एक परमार्थ व्यवहाररूप प्रवृत्ति कृत्रिम जैसी लगती है, इत्यादि कारणोसे मात्र पहुंच लिखना भी नहीं हुआ। चित्तको जो सहज
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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