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________________ २९ वो वर्ष ५०७ बंबई, चैत्र वदी ७, रवि, १९५२ दो पत्र मिले हैं। अभी विस्तारपूर्वक पत्र लिखना प्राय कभी ही होता है, और कभी तो पत्रकी पहुंच भी कितने दिन बीतने के बाद लिखी जाती है। सत्समागमके अभावके प्रसगमे तो विशेषत आरभ-परिग्रहकी वृत्तिको कम करनेका अभ्यास रखकर, जिन ग्रथोमे त्याग, वैराग्य आदि परमार्थ साधनोका उपदेश दिया है, उन ग्रथोको पढनेका अभ्यास कर्तव्य है, और अप्रमत्तरूपसे अपने दोषोको वारवार देखना योग्य है। बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ 'अन्य पुरुषको दृष्टिमे, जग व्यवहार लखाय, वृन्दावन, जब जग नहीं कौन व्यवहार बताय?' -विहार वृन्दावन ६८५ बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ एक पत्र मिला है। आपके पास जो उपदेशवचनोका संग्रह हैं, वे पढनेके लिये प्राप्त हो इसलिये श्री कुवरजीने विनती की थी। उन वचनोको पठनार्थ भेजनेके लिये स्तभतीर्थ लिखियेगा, और यहाँ वे लिखेंगे तो प्रसगोचित लिखंगा, ऐसा हमने कलोल लिखा था । यदि हो सके तो उन्हे वर्तमानमे विशेष उपकारभूत हो ऐसे कितने ही वचन उनमेसे लिख भेजियेगा । सम्यग्दर्शनके लक्षणादिवाले पत्र उन्हे विशेष उपकारभूत हो सकने योग्य हैं। वीरमगामसे श्री सुखलाल यदि श्री कुवरजीकी भाँति पत्रोकी मॉग करें तो उनके लिये भी ऊपर लिखे अनुसार करना योग्य है। ६८६ बबई, चैत्र वदी १४, रवि, १९५२ आप आदिके समागमके बाद यहाँ आना हुआ था। इतनेमे आपका एक पत्र मिला था। अभी तीन-चार दिन पहले एक दूसरा पत्र मिला है । कुछ समयसे सविस्तर पत्र लिखना कभी ही बन पाता है। और कभी पत्रकी पहँच लिखनेमे भी ऐसा हो जाता है। पहले कुछ मुमुक्षुओके प्रति उपदेश पत्र लिखे गये हैं, उनकी प्रतियाँ श्री अंबालालके पास हैं। उन पत्रोको पढने-विचारने का अभ्यास करनेसे क्षयोपशमकी विशेष शुद्धि हो सकने योग्य है। श्री अवालालको वे पत्र पठनार्थ भेजनेके लिये विनती कीजियेगा । यही विनती। ६८७ बबई, वैशाख सुदी १, मगल, १९५२ बहुत दिनोंसे पत्र नही है, सो लिखियेगा। यहाँसे जैसे पहले विस्तारपूर्वक पत्र लिखना होता था, वैसे प्राय. बहुत समयसे तथारूप प्रारब्धके कारण नहीं होता। करनेके प्रति वृत्ति नही हे, अथवा एक क्षण भी जिसे करना भासित नहीं होता, करनेसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति जिसकी उदासीनता है, वैसा कोई आप्तपुरुप तथारूप प्रारब्ध योगसे परिग्रह, सयोग आदिमे प्रवत्ति करता हआ दिखायी देता हो, और जैसे इच्छुक पुरुप प्रवृत्ति करे, उद्यम करे, वैसे कार्यसहित प्रवर्तमान देखनेमे आता हो, तो वैसे पुरुषमे ज्ञानदशा है, यह किस तरह जाना जा सकता है ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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