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________________ ५० २९ वाँ वर्ष रहता है । वर्तमानमे शास्त्रवेत्ता मात्र शब्दबोधसे 'केवलज्ञान' का जो अर्थ कहते है, वह यथार्थं नही ऐसा श्री डुगरको लगता हो तो वह सम्भावित है । फिर भूत-भविष्य जानना, इसका नाम 'केवलज्ञान' ऐसी व्याख्या मुख्यत शास्त्रकारने भी नही की है। ज्ञानका अत्यन्त शुद्ध होना उसे ज्ञानीपुरुषोने 'केव ज्ञान' कहा है, और उस ज्ञानमे मुख्य तो आत्मस्थिति और आत्मसमाधि कही है । जगतका ज्ञान हो इत्यादि जो कहा है, वह सामान्य जीवोसे अपूर्व विपयका ग्रहण होना अशक्य जानकर कहा है, क्यो जगतके ज्ञानपर विचार करते-करते आत्मसामर्थ्य समझमे आता है। श्री डुगर, महात्मा श्री ऋप आदिमे केवल-कोटी न कहते हो तो और उनके आज्ञावर्ती अर्थात् जैसे महावीर स्वामीके दर्शनसे पाँच मुमुक्षुओने केवलज्ञान प्राप्त किया, उन आज्ञावर्तियोको केवलज्ञान कहा है, उस 'केवलज्ञान' को 'केव कोटी' कहते हो, तो यह बात किसी भी तरह योग्य है । केवलज्ञानका श्री डुगर एकात निषेध करें, तो आत्माका निपेध करने जैसा है । लोग अभी 'केवलज्ञान' की जो व्याख्या करते है, वह 'केवलज्ञान' व्याख्या विरोधवाली मालूम होती है, ऐसा उन्हे लगता हो तो यह भी सम्भवित है, क्योकि वर्तम प्ररूपणामे मात्र जगतज्ञान' 'केवलज्ञान' का विषय कहा जाता है । इस प्रकारका समाधान लिखते बहुतसे प्रकारके विरोध दृष्टिगोचर होते हैं, और उन विरोधोको बताकर उसका समाधान लिखना अ तत्काल होना अशक्य है, इसलिये सक्षेपमें समाधान लिखा है । समाधानका समुच्चयार्थ इस प्रकार है "आत्मा जब अत्यन्त शुद्ध ज्ञानस्थितिका सेवन करे, उसका नाम मुख्यतः 'केवलज्ञान' है । र प्रकारके रागद्वेषका अभाव होनेपर अत्यन्त शुद्ध ज्ञानस्थिति प्रगट होने योग्य है । उस स्थितिमे जो व जाना जा सके वह 'केवलज्ञान' है, और वह सदेहयोग्य नही है । श्री डुगर 'केवल कोटी' कहते है, भी महावीरस्वामी के समीपवर्ती आज्ञावर्ती पाँच सौ केवली जैसे प्रसगमे सम्भवित है । जगतके ज्ञान लक्ष्य छोडकर जो शुद्ध आत्मज्ञान है वह 'केवलज्ञान' है, ऐसा विचारते हुए आत्मदशा विशेषत्वका से करती है ।" ऐसा इस प्रश्नके समाधानका सक्षिप्त आशय है । यथासम्भव जगतके ज्ञानका विच छोडकर स्वरूपज्ञान हो उस प्रकारसे केवलज्ञानका विचार होनेके लिये पुरुषार्थं कर्तव्य है । जगत ज्ञान होना उसे मुख्यत 'केवलज्ञान' मानना योग्य नही है । जगतके जीवोको विशेष लक्ष्य होनेके ि वारवार जगतका ज्ञान साथमे लिया है, और वह कुछ कल्पित है, ऐसा नही है, परन्तु उसका अभिनि करना योग्य नही है | इस स्थानपर विशेष लिखनेकी इच्छा होती है, और उसे रोकना पड़ता है, भी सक्षेपसे पुन लिखते है । " आत्मामेसे सर्व प्रकारका अन्य अध्यास दूर होकर स्फटिकको भाँति आ अत्यन्त शुद्धताका सेवन करे, वह 'केवलज्ञान' है, और जगतज्ञानरूपसे उसे वारवार जिनागममे कहा उस माहात्म्यसे बाह्यदृष्टि जीव पुरुषार्थं मे प्रवृत्ति करें, यह हेतु है ।" यहाँ श्री डुगरको, ‘केवल-कोटी' सर्वथा हमने कही है, ऐसा कहना योग्य नही है । हमने अतरा रूपसे भी वैसा माना नहीं है । आपने यह प्रश्न लिखा, इसलिये कुछ विशेष हेतु विचारकर समाव लिखा है, परन्तु अभी उस प्रश्नका समाधान करनेमे जितना मौन रहा जाये उतना उपकारी है, चित्तमे रहता है । बाकीके प्रश्नोका समाधान समागममे कीजियेगा । बबई, चैत्र सुदी १३, १९ ६८० ॐ जिसकी मोक्षके सिवाय किसी भी वस्तुको इच्छा या स्पृहा नही थी ओर अखड स्वरूपमे रमप होनेसे मोक्षकी इच्छा भी निवृत्त हो गयी है, उसे हे नाथ । तू तुष्टमान होकर भी और क्या वाला था ?
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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