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________________ २१ वॉ वर्ष ५०३ १ जिस ज्ञानमे देह आदिका अध्यास मिट गया है, और अन्य पदार्थमे अहता-ममताका अभाव है, तथा उपयोग स्वभावमे परिणमता है, अर्थात् ज्ञान स्वरूपताका सेवन करता है, उस ज्ञानको 'निरावरणज्ञान' कहना योग्य है | २ सर्वं जीवोको अर्थात् सामान्य मनुष्योको ज्ञानी अज्ञानीकी वाणीमे जो अन्तर हैं सो समझना कठिन है, यह बात यथार्थ है, क्योकि शुष्कज्ञानी कुछ सीख कर ज्ञानी जैसा उपदेश करे, जिससे उसमे वचनकी समानता दीखनेसे शुष्कज्ञानीको भी सामान्य मनुष्य ज्ञानी मानें, मददशावान मुमुक्षुजीव भी वैसे वचनोंसे भ्रातिमे पड जाये, परन्तु उत्कृष्टदशावान मुमुक्षुपुरुष शुष्कज्ञानोकी वाणी शब्दसे ज्ञानीकी वाणी जैसी देखकर प्राय भ्राति पाने योग्य नही है, क्योकि आगयसे शुष्कज्ञानीकी वाणीसे ज्ञानीकी वाणीकी तुलना नही होती । ज्ञानीकी वाणी पूर्वापर अविरोधी, आत्मार्थ-उपदेशक और अपूर्व अर्थका निरूपण करनेवाली होती है, और अनुभवसहित होनेसे आत्माको सतत जाग्रत करनेवाली होती है । शुष्कज्ञानीकी वाणीमे तथारूप गुण नही होते । सर्वसे उत्कृष्ट गुण जो पूर्वापर अविरोधिता है, वह शुष्कज्ञानीकी वाणीमे नही हो सकता, क्योकि उसे यथास्थित पदार्थदर्शन नही होता, और इस कारणसे जगह जगह उसकी वाणी कल्पना से युक्त होती है । इत्यादि नाना प्रकारके भेदसे ज्ञानी और शुष्कज्ञानीकी वाणीकी पहचान उत्कृष्ट मुमुक्षुको होने योग्य है । ज्ञानीपुरुषको तो उसकी पहचान सहजस्वभावसे होती है, क्योकि स्वय भानसहित है, और भानसहित पुरुष के बिना इस प्रकार के आशयका उपदेश नही दिया जा सकता, ऐसा सहज हो वे जानते हैं । जिसे अज्ञान और ज्ञानका भेद समझमे आया है, उसे अज्ञानी और ज्ञानीका भेद सहजमे समझमें आ सकता है । जिसका अज्ञानके प्रति मोह समाप्त हो गया है, ऐसे ज्ञानोपुरुपको शुष्कज्ञानीके वचन कैसे भ्राति कर सकते है ? किन्तु सामान्य जीवोको अथवा मददशा और मध्यमदशाके मुमुक्षुको शुष्कज्ञानीके वचनं समानरूप दिखायी देनेसे, दोनो ज्ञानीके वचन हैं, ऐसी भ्राति होना संभव है । उत्कृष्ट मुमुक्षुको प्राय' वैसी भ्राति सभव नही है, क्योकि ज्ञानीके वचनोकी परीक्षाका बल उसे विशेषरूपसे स्थिर हो गया है । पूर्वकालमे ज्ञानी हो गये हो, और मात्र उनकी मुखवाणी रही हो तो भी वर्तमानकालमे ज्ञानी पुरुष यह जान सकते हैं कि यह वाणी ज्ञानीपुरुषकी है, क्योकि रात्रि-दिनके भेदकी तरह अज्ञानी-ज्ञानीकी वाणी आशय-भेद होता है, और आत्मदशाके तारतम्यके अनुसार आशयवाली वाणी निकलती है । वह आशय, वाणीपरसे 'वर्तमान ज्ञानीपुरुष' को स्वाभाविक दृष्टिगत होता है । और कहनेवाले पुरुषकी दशाका तारतम्य ध्यानगत होता है । यहाँ जो 'वर्तमान ज्ञानी' शब्द लिखा है, वह किसी विशेष प्रज्ञावान, प्रगट बोधबीजसहित पुरुषके अर्थमे लिखा है । ज्ञानी के वचनोकी परीक्षा यदि सर्व जीवोको सुलभ होती तो निर्वाण भी सुलभ ही होता । ३ जिनागममे मति, श्रुत आदि ज्ञानके पाँच प्रकार कहे है । वे ज्ञानके प्रकार सच्चे हैं, उपमावाचक नही हैं । अवधि, मन पर्यंय आदि ज्ञान वर्तमानकालमे व्यवच्छेद जैसे लगते है, इससे ये ज्ञान उपमावाचक समझना योग्य नही है । ये ज्ञान मनुष्य जीवोको चारित्रपर्यायकी विशुद्ध तरतमतासे उत्पन्न होते हैं। वर्तमानकालमे वह विशुद्ध तरतमता प्राप्त होना दुष्कर है, क्योकि कालका प्रत्यक्ष स्वरूप चारित्रमोहनीय आदि प्रकृतियोके विशेष वलसहित प्रवर्तमान दिखायी देता है । 1 सामान्य आत्मचरित्र भी किसी हो जीवमे होना सभव है । ऐसे कालमे उस ज्ञानकी लब्धि व्यवच्छेद जैसी हो, इसमे कुछ आश्चर्य नही है, इसलिये उस ज्ञानको उपमावाचक समझना योग्य नही है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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