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________________ ५०० श्रीमद् राजचन्द्र श्री सुन्दरदासने आत्मजागृतदशामे 'शूरातनअग' कहा है, उसमे विशेष उल्लास परिणतिसे शूरवीरताका निरूपण किया है *मारे काम क्रोध सब, लोभ मोह पोसि डारे, इन्द्रिहु कतल करी, कियो रजपूतो है। मार्यो महा मत्त मन, मारे अहंकार मीर, मारे मद मछर हू, ऐसो रन रूतो है ।। मारी आशा तृष्णा पुनि, पापिनी सापिनी दोउ, सबको सहार करि, निज पद पहूतो है । सुन्दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरि सब मारिके, निचित होई सूतो है। -श्री सुदरदास शूरातनअग, २१-११ ६७३ बंबई, फागुन सुदी १०, रवि, १९५२ ॐ श्री सद्गुरुप्रसाद श्री सायलाक्षेत्रमे क्रमसे विचरते हुए प्रतिबन्ध नही है। यथार्थज्ञान उत्पन्न होनेसे पहले जिन जीवोको, उपदेश देनेका रहता हो उन जीवोको, जिस तरह वैराग्य, उपशम और भक्तिका लक्ष्य हो, उस तरह प्रसगप्राप्त जीवोको उपदेश देना योग्य है, और जिस तरह उनका नाना प्रकारके असआग्रहका तथा सर्वथा वेषव्यवहारादिका अभिनिवेश कम हो, उस तरह उपदेश परिणमित हो वैसे आत्मार्थ विचारकर कहना योग्य है। क्रमश वे जीव यथार्थ मागके सन्मुख हो ऐसा यथाशक्ति उपदेश कर्तव्य है। ६७४ बंबई, फागुन वदी ३, सोम, १९५२ ॐ सद्गुरुप्रसाद देहधारी होनेपर भी निरावरणज्ञानसहित रहते हैं ऐसे महापुरुषोको त्रिकाल नमस्कार आत्मार्थी श्री सोभागके प्रति, श्री सायला । देहधारी होनेपर भी परम ज्ञानीपुरुषमे सर्व कषायका अभाव हो सके, ऐसा हमने लिखा है, उस प्रसगमे 'अभाव' शब्दका अर्थ 'क्षय' समझकर लिखा है। जगतवासी जीवको रागद्वेप दूर होनेका पता नही चलता, परन्तु जो महान पुरुष हैं वे जानते है कि इस महात्मा पुरुषमे रागद्वेपका अभाव या उपशम है, ऐसा लिखकर आपने शका की है कि जैसे महात्मा पुरुपको ज्ञानीपुरुप अथवा दृढ मुमुक्षुजीव जानते हैं वैसे जगतके जीव क्यो न जाने ? मनुष्य आदि प्राणीको देखकर जैसे जगतवासी जीव जानते है कि ये मनुष्य आदि हैं, और महात्मा पुरुष भी जानते हैं कि ये मनुष्य आदि है, इन पदार्थोंको देखनेसे दोनो समानरूपसे जानते है, और इसमे भेद रहता है, वसा भेद होनेके क्या कारण मुख्यत विचारणीय हे ? ऐसा लिखा उसका समाधान मनुष्य आदिको जो जगतवासी जीव जानते हैं, वह दैहिक स्वरूपसे तथा दैहिक चेष्टासे जानते है। एक दूसरेको मुद्रामे, आकारमे और इन्द्रियोमे जो भेद है, उसे चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जगतवासी जीव __ *भावार्य-जिसने काम व क्रोधको मार डाला है, लोभ व मोहको पीस डाला है और इन्द्रियोको कल करके शूरवीरता दिखाई है, जिसने मदोन्मत्त मन और अहकाररूप सेनापतिका नाश कर दिया है, तथा मद एव मत्सरको निर्मूल कर दिया है ऐसा रणवँका है, जिसने आशा तृष्णारूपी पापिष्ठ सांपिनोको भी मार दिया है वह सव परियोका सहार करके निजपद अर्यात् अपने स्वभावमें स्थिर हुआ है । सुदरदास कहते हैं कि कोई विरल शूरवीर साधु हा सभी परियोका नाशकर निश्चित होकर सो रहा है अर्थात् स्वभावमें मग्न होकर आत्मानदका उपभोग करता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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