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________________ २८ वॉ वर्ष ४८७ धान इस प्रकार है - अमृक अमुक चेष्टा और लिंग तथा परिणाम आदिसे अपनेको उसका स्पष्ट भान होता हे, परन्तु किसी दूसरे जीवको उसकी प्रतीति हो ऐसा तो कोई नियम नही है । क्वचित् अमुक देशमे, अमुक गाँव, अमुक घरमे, पूर्वकालमे देह धारण किया हो, और उसके चिह्न दूसरे जीवको बतानेसे उस देशादिकी अथवा उसके निशानादिकी कुछ भी विद्यमानता हो तो दूसरे जीवको भी प्रतीतिका हेतु होना सम्भव है; अथवा जातिस्मरेणज्ञानवालेकी अपेक्षा जिसका विशेष ज्ञान है, वह जाने । तथा जिसे 'जाति - स्मरणज्ञान' है, उसकी प्रकृति आदिको जाननेवाला कोई विचारवान पुरुष भी जाने कि इस पुरुषको वैसे किसी ज्ञानका सम्भव है, अथवा 'जातिस्मृति' होना सम्भव है, अथवा जिसे 'जातिस्मृतिज्ञान' है, उस पुरुषके सम्बन्धमे कोई जीव पूर्वभवमे आया है, विशेषत आया उसे उस सम्बन्धके बतानेसे कुछ भी स्मृति हो तो वैसे जीवको भी प्रतीति आये । है दूसरा प्रश्न - 'जीव प्रति समय मरता है, इसे किस तरह समझना ?? इसका उत्तर इस प्रकार विचारियेगा - जिस प्रकार आत्माको स्थूल देहका वियोग होता है, उसे मरण कहा जाता है, उस प्रकार स्थूल देह आयु आदि सूक्ष्मपर्यायका भी प्रति समय हानिपरिणाम होनेसे वियोग हो रहा है, इसलिये उसे प्रति समय मरण कहना योग्य है । यह मरण व्यवहारनयसे कहा जाता है, निश्चयनयसे तो आत्माके स्वाभाविक ज्ञानदर्शनादि गुणपर्यायकी, विभावपरिणामके योगके कारण हानि हुआ करती है, और वह हानि आत्मा नित्यतादि स्वरूपको भी आवरण करती रहती है, यह प्रति समय मरण है । तीसरा प्रश्न - 'केवलज्ञानदर्शनमे भूत और भविष्यकालके पदार्थ वर्तमानकालमे वर्तमानरूपसे दिखायी देते हैं, वैसे ही दिखायी देते हैं या दूसरी तरह " इसका उत्तर इस प्रकार विचारियेगा ' वर्तमान मे वर्तमान पदार्थ जिस प्रकार दिखायी देते हैं, जिस स्वरूपसे थे उस स्वरूपसे वर्तमानकालमे दिखायी देते हैं, को प्राप्त करेंगे उस स्वरूपसे वर्तमानकालमे दिखायी देते हैं । अपनाया है, वे कारणरूपसे वर्तमानमे पदार्थमे निहित है और भविष्यकालमे जिन जिन पर्यायोको अपनायेगा उनकी योग्यता वर्तमानमे पदार्थमे विद्यमान है । उस कारण और योग्यताका ज्ञान वर्तमानकालमे भी केवलज्ञानीको यथार्थ स्वरूपसे हो सकता है । यद्यपि इस प्रश्नके विषयमे बहुतसे विचार बताना योग्य है । भूतकालमे पदार्थने जिन जिन पर्यायोको उसी प्रकार भूतकालके पदार्थ भूतकालमे और भविष्यकालमे वे पदार्थ जिस स्वरूप ववाणिया, श्रावण वदी १२, शनि, १९५१ मुख्यत तीन प्रश्न लिखे हैं । उनके उत्तर ६३० गत शनिवारको लिखा हुआ पत्र मिला है। उस पत्रमे निम्नलिखित है, जिन्हे विचारियेगा : प्रथम प्रश्न ऐसा बताया है कि 'एक मनुष्यप्राणी दिनके समय आत्माके गुण द्वारा अमुक हद तक देख सकता है, और रात्रिके समय अधेरेमे कुछ नही देखता, फिर दूसरे दिन पुनः देखता है और फिर रात्रिको अधेरेमे कुछ नही देखता । इससे एक अहोरात्रमे चालू इस प्रकारसे आत्माके गुणपर, अध्यवसायके बदले विना, क्या न देखनेका आवरण आ जाता होगा ? अथवा देखना यह आत्माका गुण नही परन्तु सूरज द्वारा दिखायी देता है, इसलिये सूरजका गुण होनेसे उसकी अनुपस्थितिमे दिखायी नही देता ? और फिर इसी तरह सुननेके दृष्टातमे कान आडा रखनेसे सुनायी नही देता, तब आत्माका गुण क्यो भुला दिया जाता है ?" इसका संक्षेपमे उत्तर
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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