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________________ ४७८ श्रीमद् राजचन्द्र ६१२ बम्बई, आषाढ सुदी १, रवि, १९५१ परम स्नेही श्री सोभाग, श्री सायला । ___ आपके दो पत्र मिले है। हमसे अभी कुछ विशेष लिखना नही होता, पहले जो विस्तारसे एक प्रश्नके समाधानमे अनेक प्रकारके दृष्टात देकर सिद्धातसे लिखना हो सकता था उतना अभी नही हो सकता है। इतना ही नही परन्तु चार पक्तियाँ जितना लिखना हो तो भी कठिन पड़ता है, क्योकि अभी चित्तकी प्रवृत्ति अंतर्विचारमे विशेष रहती है; और लिखने आदिकी प्रवृत्तिसे चित्त संकुचित रहता है ।, फिर उदय भी तथारूप रहता है। पहलेकी अपेक्षा बोलनेके सम्बन्धमे भी प्राय ऐसा ही उदय रहता है । तो भी कई बार लिखनेकी अपेक्षा बोलनेका कुछ विशेष बन पाता है। जिससे समागममे कुछ जानने योग्य पूछना हो तो स्मरण रखियेगा। अहोरात्र प्राय विचारदशा रहा करती है, जिसे संक्षेपमे भी लिखना नही हो सकता। समागममे कुछ प्रसगोपात्त कहा जा सकेगा तो वैसा करनेकी इच्छा रहती है, क्योकि उससे हमे भी हितकारक स्थिरता होगी। कबीरपथी वहां आये है, उनका समागम करनेमे बाधाका सभव नही है। और यदि उनकी कोई प्रवृत्ति यथायोग्य न लगती हो तो उस बातपर अधिक ध्यान न देते हुए उनके विचारका कुछ अनुकरण करना योग्य लगे तो विचार करना। जो वैराग्यवान होता है उसका समागम कई प्रकारसे आत्मभावकी उन्नति करता है। .. सायलामे अमुक समय स्थिरता करनेके सम्बन्धमे आपने लिखा, इस बातका अभी उपशम करनेका प्राय चित्त रहता है। क्योकि लोकसम्बन्धी समागमसे उदासभाव विशेष रहता है। तथा एकात जैसे योगके बिना कितनी ही प्रवृत्तियोका निरोध करना नही हो सकता, जिससे आपकी लिखी हुई इच्छाके लिये प्रवृत्ति हो सकना अशक्य है। यहाँसे जिस तिथिको निवृत्ति हो सकेगी, उस तिथि तथा बादकी व्यवस्थाके विषयमे यथायोग्य विचार हो जानेपर उस विषयमे आपको पत्र लिखूगा। श्री डुगर और आप कुछ ज्ञानवार्ता लिखियेगा। यहाँसे पत्र आये या न आये, इसकी राह न देखियेगा। श्री सोभागका विचार अभी इस तरफ आनेका रहता हो तो अभी विलब करना योग्य है। " कुछ ज्ञानवार्ता लिख सके तो लिखियेगा। यही विनती। '' 'आ० स्व० प्रणाम । ६१३ बम्बई, आषाढ-सुदी ११, बुध, १९५१ जिस कषाय-परिणामसे अनत ससारका बन्ध हो उस कषाय-परिणामको जिनप्रवचनमे 'अनतानुवधी' सज्ञा दी है। जिस कपायमे तन्मयतासे अप्रशस्त ( अशुभ ) भावसे तीव्र उपयोगसे आत्माकी प्रवृत्ति है, वहाँ 'अनंतानुबधी' का सभव है । मुख्यतः यहाँ कहे हुए स्थानकमे उस कषायका विशेष सभव है। सद्देव, सद्गुरु और सद्धर्मका जिस प्रकारसे द्रोह हो, अवज्ञा हो, तथा विमुखभाव हो, इत्यादि प्रवृत्तिसे, तथा असदेव, असद्गुरु तथा असद्धर्मका जिस प्रकारसे आग्रह हो,, तत्सम्बन्धी कृतकृत्यता मान्य हो, इत्यादि प्रवृत्ति करते हुए अनतानुबधी कपाय' का सभव है, अथवा ज्ञानीके वचनमे स्त्रीपुत्रादि भावोको, जिस मर्यादाके पश्चात् इच्छा करते हुए निर्वस परिणाम कहा है, उस परिणामसे प्रवृत्ति करते हुए. भी 'अनतानुवधी' होने योग्य है । सक्षेपमे अनतानुबंधी कषायकी व्याख्या इस प्रकार प्रतीत होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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