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________________ ४७६ श्रीमद राजचन्द्र तो मोढुं ज न उघाडे ।' वाक्य गंभीर न होनेसे लिखनेकी प्रवृत्ति न होती, परन्तु आशय गंभीर होनेसे और अपने विषय मे विशेष विचारणीय दीखनेसे, आपको पत्र लिखनेका स्मरण हो आनेसे यह वाक्य लिखा है, इसपर यथाशक्ति विचार कीजियेगा । यही विनती । लि० रायचंदके प्रणाम विदित हो । बबई, जेठ, १९५१ ६०९ १ सहजस्वरूपसे जीवकी स्थिति होना, इसे श्री वीतराग 'मोक्ष' कहते है | २ जीव सहजस्वरूपसे रहित नही है, परन्तु उस सहजस्वरूपका जीवको मात्र भान नही है, जो भान होना, वही सहजस्वरूपसे स्थिति है । ३ सगके योगसे यह जीव सहजस्थितिको भूल गया है, सगकी निवृत्तिसे सहजस्वरूपका अपरोक्ष भान प्रगट होता है । ४ इसीलिये सर्वं तीर्थंकरादि ज्ञानियोने असगता ही सर्वोत्कृष्ट कही है, कि जिसमे सर्व आत्मसाधन रहे हैं । ५ सर्व जिनागममे कहे हुए वचन एक मात्र असगतामे ही समा जाते हैं, क्योकि वह होनेके लिये ही वे सर्व वचन कहे है । एक परमाणुसे लेकर चौदह राजलोककी और निमेषोन्मेषसे लेकर शैलेशीअवस्था पर्यतकी सर्वं क्रियाओका जो वर्णन किया गया है, वह इसी असगताको समझाने के लिये किया है । ६. सर्व भावसे असंगता होना, यह सबसे दुष्करसे दुष्कर साधन है, और वह निराश्रयतासे सिद्ध होना अत्यन्त दुष्कर है । ऐसा विचारकर श्री तीर्थंकरने सत्सगको उसका आधार कहा है, कि जिस सत्संगके योगसे जीवको सहजस्वरूपभूत असंगता उत्पन्न होती है । ७ वह सत्संग भी जीवको कई बार प्राप्त होनेपर भी फलवान नही हुआ, ऐसा श्री वीतरागने कहा है, क्योकि उस सत्सगको पहचानकर इस जीवने उसे परम हितकारी नही समझा, परमस्नेहमें उसकी उपासना नही को, और प्राप्तका भी अप्राप्त फलवान होनेयोग्य सज्ञासे विसर्जन किया है, ऐसा कहा है । यह जो हमने कहा है उसी बातकी विचारणासे हमारे आत्मामे आत्मगुणका आविर्भाव होकर सहज समाधिपर्यंत प्राप्त हुए, ऐसे सत्सगको मै अत्यत अत्यत भक्तिसे नमस्कार करता हूँ । ८ अवश्य इस जीवको प्रथम सर्वं साधनोको गौण मानकर निर्वाणके मुख्य हेतुभूत सत्सगकी ही सर्वापंणतासे उपासना करना योग्य है, कि जिससे सर्व साधन सुलभ होते है, ऐसा हमारा आत्मसाक्षात्कार है । ९ उस सत्सगके प्राप्त होनेपर यदि इस जीवको कल्याण प्राप्त न हो तो अवश्य इस जीवका ही दोष है, क्योकि उस सत्संगके अपूर्व, अलभ्य और अत्यत दुर्लभ योगमे भी उसने उस सत्सगके योगके बाधक अनिष्ट कारणोका त्याग नही किया । १०. मिथ्याग्रह, स्वच्छन्दता, प्रमाद और इन्द्रियविषयकी उपेक्षा न की हो तभी सत्संग फलवान नही होता, अथवा सत्सगमे एकनिष्ठा, अपूर्वभक्ति न की हो तो फलवान नही होता । यदि एक ऐसी अपूर्वभक्तिसे सत्सगकी उपासना की हो तो अल्पकालमे मिथ्याग्रहादिका नाश हो और अनुक्रमसे जीव सर्व दो मुक्त हो जाये । ११ सत्सगकी पहचान होना जीवको दुर्लभ है। किसी महान पुण्ययोगसे उसकी पहचान होनेपर निश्चयसे यही सत्संग, सत्पुरुष है, ऐसा साक्षीभाव उत्पन्न हुआ हो, वह जीव तो अवश्य ही प्रवृत्तिका संकोच करे, अपने दोपोको क्षण क्षणमे, कार्यं कार्यमे ओर प्रसग प्रसंगमे तीक्ष्ण उपयोगसे देखे, देखकर उन्हे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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