SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 583
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७० श्रीमद् राजचन्द्र ५९६ बंबई, वैशाख वदी ७, गुरु, १९५१ सर्वकी अपेक्षा वीतरागके वचनको सम्पूर्ण प्रतीतिका स्थान कहना योग्य है, क्योकि जहाँ रागादि दोषका सम्पूर्ण क्षय हो वहाँ सम्पूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगट होने योग्य नियम घटित होता है। श्री जिनेंद्रको सबकी अपेक्षा उत्कृष्ट वीतरागता सम्भव है, क्योकि उनके वचन प्रत्यक्ष प्रमाण है। जिस किसी पुरुषको जितने अशमे वीतरागता सम्भव है, उतने अशमे उस पुरुषका वाक्य मान्यता योग्य है। साख्यादि दर्शनमे बध-मोक्षकी जो जो व्याख्या उपदिष्ट है, उससे बलवान प्रमाणसिद्ध व्याख्या श्री जिन वीतरागने कही है, ऐसा जानता हूँ। ५९७ बंबई, वैशाख वदी ७, गुरु, १९५१ हमारे चित्तमे वारवार ऐसा आता है और ऐसा परिणाम स्थिर रहा करता है कि जैसा आत्मकल्याणका निर्धार श्रीवर्धमानस्वामीने या श्रीऋषभादिने किया है, वैसा निर्धार दूसरे सम्प्रदायमे नही है । वेदान्त आदि दर्शनका लक्ष्य आत्मज्ञानके प्रति और सम्पूर्ण मोक्षके प्रति जाता हुआ देखनेमे आता है, परन्तु उसका सम्पूर्णरूपसे यथायोग्य निर्धार-उसमे मालूम नहीं होता, अंशत. मालूम होता है और कुछ कुछ उसका भी पर्यायातर दिखायी देता है। यद्यपि वेदांतमे जगह जगह आत्मचर्याका ही विवेचन किया है, तथापि वह चर्या स्पष्टत अविरुद्ध है, ऐसा अभी तक प्रतीत नही हो पाता। ऐसा भी सम्भव है कि कदाचित् विचारके किसी उदयभेदसे वेदातका आशय अन्य स्वरूपसे समझमे आता हो और उससे विरोधका भास होता हो, ऐसी आशका भी पुन पुनः चित्तमे करनेमे आयी है, विशेष विशेष आत्मवीर्यका परिणमन करके उसे अविरोधी देखनेके लिये विचार किया गया है, तथापि ऐसा मालूम होता है कि वेदात जिस प्रकारसे आत्मस्वरूप कहता है उस प्रकारसे वेदात सर्वथा अविरोधिताको प्राप्त नही कर सकता । क्योकि वह जो कहता है उसीके अनुसार आत्मस्वरूप नही है, उसमे कोई बड़ा भेद देखनेमे आता है, और उसी प्रकारसे साख्य आदि दर्शनोमे भी भेद देखनेमे आता है | श्री जिनेंद्रने जो आत्मस्वरूप कहा है, एक मात्र वही विशेष विशेष अविरोधी देखनेमे आता है और उस प्रकारसे वेदन करनेमे आता है। श्री जिनेंद्र का कहा हुआ आत्मस्वरूप सम्पूर्णतः अविरोधो होने योग्य है, ऐसा प्रतीत होता है। सम्पूर्णतः अविरोधी ही है, ऐसा जो नही कहा जाता उसका हेतु मात्र इतना ही है कि सम्पूर्णतः आत्मावस्था प्रगट नही हुई है। जिससे जो अवस्था अप्रगट है, उस अवस्थाका अनुमान वर्तमानमे करते हैं, जिससे उस अनुमानपर अत्यंत भार न देना योग्य समझकर विशेष विशेष अविरोधी है, ऐसा कहा है, सम्पूर्ण अविरोधी होने योग्य है, ऐसा लगता है। . .. - सम्पूर्ण आत्मस्वरूप किसी भी, पुरुषमे प्रगट. होना चाहिये, ऐसा आत्मामे निश्चित प्रतीतिभाव आता है, और वह कैसे पुरुषमें प्रगट होना चाहिये, ऐसा विचार करते हुए, जिनेद्र जैसे पुरुषमे प्रगट होना चाहिये ऐसा स्पष्ट लगता है। इस सृष्टिमंडलमे यदि किसीमे भी सम्पूर्ण आत्मस्वरूप प्रगट होने योग्य हो तो श्री वर्धमानस्वामीमे प्रथम प्रगट होने योग्य लगता है, अथवा उस दशाके पुरुषोमे सबसे प्रथम सम्पूर्ण आत्मस्वरूप . . . [ अपूर्ण ] ५९८ . बम्बई, वैशाख वदी १०, रवि,-१९५१ परमस्नेही श्री सोभागके प्रति नमस्कारपूर्वक-श्री सायला ।, , , आज एक पत्र मिला है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy