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________________ २८ वां वर्ष परम ज्ञानीके लिये भी कर्तव्य नही है, ऐसा निश्चल मार्ग कहा है, उन श्री जिन वीतरागके चरणकमलमे अत्यत नन परिणामसे नमस्कार है। 'जो प्रश्न आजके पत्रमे लिखे है उनका उत्तर समागममे पूछियेगा | दर्पण, जल, दीपक, सूर्य और चक्षुके स्वरूपपर विचार करेंगे, तो केवलज्ञानसे पदार्थ प्रकाशित होते है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है, उसे समझनेमे कुछ साधन होगा। ५८७ बबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१ • 'केवलज्ञानसे पदार्थ किस प्रकार दिखायी देते हैं ?' इस प्रश्नका उत्तर विशेषत. समागममे समझनेसे स्पष्ट समझा जा सकता है, तो भी सक्षेपमे नीचे लिखा है जैसे दीपक जहाँ जहाँ होता है, वहाँ वहाँ प्रकाशकरूपसे होता है, वैसे ज्ञान जहाँ जहाँ होता है वहाँ वहाँ प्रकाशकरूपसे होता है। जैसे दीपकका सहज स्वभाव ही पदार्थप्रकाशक होता है वैसे ज्ञानका सहज स्वभाव भी पदार्थप्रकाशक है। दीपक द्रव्यप्रकाशक है, और ज्ञान द्रव्य, भाव दोनोका प्रकाशक है। दीपकके प्रकाशित होनेसे उसके प्रकाशकी सीमामे जो कोई पदार्थ होता है वह सहज ही दिखायी देता है, वैसे ज्ञानकी विद्यमानतासे पदार्थ सहज ही दिखायी देता है । जिसमे यथातथ्य और सम्पूर्ण पदार्थ सहज देखे जाते हैं, उसे 'देवलज्ञान' कहा है। यद्यपि परमार्थसे ऐसा कहा है कि केवलज्ञान भी अनुभवमे तो मात्र आत्मानुभवकर्ता है, व्यवहारनयसे लोकालोक प्रकाशक है । जैसे दर्पण, दीपक, सूर्य और चक्षु पदार्थप्रकाशक है, वैसे ज्ञान भी पदार्थप्रकाशक है। । ' ५८८ वबई, चैत्र वदी १२, रवि, १९५१ श्री जिन वीतरागने द्रव्य-भाव संयोगसे वारंवार छूटनेकी प्रेरणा की है, और उस सयोगका विश्वास परमजानीको भी कर्तव्य नहीं है, ऐसा अखंडमार्ग कहा है; उन श्री जिन वीतरागके चरणकमलमे अत्यत भक्तिपूर्वक नमस्कार। , आत्मस्वरूपका निश्चय होनेमे जीवकी अनादिकालसे भूल होती आयी है। समस्त श्रुतज्ञानस्वरूप द्वादशागमे सर्व-प्रथम- उपदेश योग्य 'आचारागसूत्र' है; उसके प्रथम श्रुतस्कधमे, प्रथम अध्ययनके प्रथम उद्देशमे प्रथम वाक्यमे श्री जिनने जो उपदेश किया है, वह सर्व अगोका, सर्व श्रुतज्ञानका सारस्वरूप है, मोक्षका बीजभूत है, सम्यक्त्वस्वरूप है। उस वाक्यमे उपयोग स्थिर होनेसे जीवको निश्चय होगा कि ज्ञानीपुरुषके समागमकी उपासनाके बिना जीव स्वच्छदसे निश्चय करे, यह छूटनेका मार्ग नही है। सभी जीवमे परमात्मस्वरूप है, इसमे सशय नही है, तो फिर श्री देवकरणजी स्वयंको परमात्मस्वरूप मान लें तो यह बात असत्य नही है, परतु जब तक वह स्वरूप यथातथ्य प्रगद न हो, तब तक मुमुक्षु, जिज्ञासु रहना अधिक अच्छा है, और उस मागसे यथार्थ परमात्मस्वरूप प्रगट होता है। उस मार्ग को छोड़कर प्रवर्तन करनेसे उस पदका भान नही होता, तथा श्री जिन वीतराग सर्वज्ञ पुरुषोकी आसातना 'करनेरूप प्रवृत्ति होती है । दूसरा कोई मतभेद नही है । मृत्यु अवश्य आनेवाली है। आ० स्व. प्रणाम।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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