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________________ ४६० श्रीमद राजचन्द्र है वह, अत्यन्त पुरुषार्थके बिना, अल्पकालमे छोड़ा नही जा सकता। इसलिये पुनः पुन. सत्सग, सत्शास्त्र और अपनेमे सरल विचारदशा करके उस विषयमे विशेष श्रम करना योग्य है, कि जिसके परिणाममे नित्य शाश्वत सुखस्वरूप ऐसा आत्मज्ञान होकर स्वरूपका आविर्भाव होता है। इसमे प्रथमसे उत्पन्न होनेवाले सशय धैर्यसे और विचारसे शात होते है। अधीरतासे अथवा टेढी कल्पना करनेसे मात्र जीवको अपने हितका त्याग करनेका समय आता है, और अनित्य पदार्थका राग रहनेके कारणसे पुन पुन. संसारपरिभ्रमणका योग रहा करता है। __ कुछ भी आत्मविचार करनेकी इच्छा आपको रहती है, ऐसा जानकर बहुत सतोष हुआ है । उस सतोषमे मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। मात्र आप समाधिके रास्तेपर चढना चाहते है, जिससे आपको संसारक्लेशसे निवृत्त होनेका अवसर प्राप्त होगा। इस प्रकारको सम्भावना देखकर स्वभावत सन्तोष होता है। यही विनती। आ० स्व० प्रणाम । ५७१ बंबई, फागुन वदी ५, शनि, १९५१ अधिकसे अधिक एक समयमे १०८ जीव मुक्त हो, इससे अधिक न हो, ऐसी लोकस्थिति जिनागममे स्वीकृत है, और प्रत्येक समयमे एक सौ आठ एक सौ आठ जीव मुक्त होते ही रहते हैं, ऐसा मानें तो इस परिमाणसे तीनो कालमे जितने जीव मोक्ष प्राप्त करें, उतने जीवोकी जो अनत सख्या हो, उसकी अपेक्षा संसारनिवासी जीवोकी सख्या - जिनागममे अनत गुनी निरूपित की है। अर्थात् तीनो कालमे मुक्तजीव जितने हो उनकी अपेक्षा ससारमे अनत गुने जीव रहते है, क्योकि उनका परिमाण इतना अधिक है, और इसलिये मोक्षमार्गका प्रवाह बहते रहते हुए भी ससारमार्गका उच्छेद हो जाना सभव नही है, और इससे बध-मोक्षको व्यवस्थामे विपर्यय नहीं होता। इस विषयमे अधिक चर्चा समागममे करेंगे तो बाधा नही है। जीवके बन्ध-मोक्षकी व्यवस्थाके विषयमे सक्षेपमे पत्र लिखा है। इस प्रकारके जो जो प्रश्न हो वे सव समाधान हो सकने जैसे हैं, कोई फिर अल्पकालमे और कोई फिर विशेष कालमे समझे अथवा समझमे आये, परन्तु इन सबकी व्यवस्थाका समाधान हो सकने जैसा है। . . · सबको अपेक्षा अभी विचारणीय बात तो यह है कि उपाधि तो की जाये और सर्वथा असगदशा रहे, ऐसा होना अत्यन्त कठिन है, और उपाधि. करते हुए आत्मपरिणाम चचल न हो, ऐसा होना असम्भवित जैसा है । उत्कृष्ट ज्ञानीको छोड़कर हम सबको तो यह बात अधिक ध्यानमे रखने योग्य है कि, आत्मामे जितनी असम्पूर्णता-असमाधि रहती है अथवा रह सकने जैसी हो, उसका उच्छेद करना ।, - ५७२ बंबई, फागुन वदी ७, रवि, १९५१ सर्व विभावसे उदासीन और अत्यन्त शुद्ध निज पर्यायका सहजरूपसे आत्मा सेवन करे, उसे श्री जिनेंद्रने तीव्रज्ञानदशा कही है । जिस दशाके आये बिना कोई भी जीव बन्धनमुक्त नही होता, ऐसा सिद्धात श्री जिनेंद्रने प्रतिपादित किया है, जो अखड सत्य है। __किसी ही जीवसे इस गहन दशाका विचार हो सकना योग्य है, क्योकि अनादिसे अत्यन्त अज्ञानदशासे इस जीवने जो प्रवृत्ति की है, उस प्रवृत्तिको एकदम असत्य, असार समझकर उसकी निवृत्ति सूझे ऐसा होना बहुत कठिन है, इसलिये जिनेंद्रने ज्ञानीपुरुषका आश्रय करनेरूप भक्तिमार्गका निरूपण किया है, कि जिस मार्गके आराधनसे सुलभतासे ज्ञानदशा उत्पन्न होती है। . . ज्ञानीपुरुषके चरणमे मनको स्थापित किये बिना यह. भक्तिमार्ग सिद्ध नही होता, जिससे जिनागममे पुन पुन ज्ञानीकी आज्ञाका आराधन करनेका स्थान स्थानपर कथन किया है। ज्ञानीपुरुषकै चरणमे मनका
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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