SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 569
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजचन्द्र ५६४ बबई, माघ सुदी ८, रवि, १९५१ __यहाँ इस वार तीन वर्षोंसे अधिक प्रवृत्तिके उदयको भोगा है। और वहाँ आनेके बाद भी थोडे दिन कुछ प्रवृत्तिका सम्बन्ध रहे, इससे अब उपरामता प्राप्त हो तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहता है। दूसरी उपरामता अभी होना कठिन है, कम सम्भव है। परतु आपका तथा श्री डुगर आदिका समागम हो तो अच्छा, ऐसा चित्तमे रहता है । इसलिये आप श्री डुगरको सूचित कीजियेगा और वे ववाणिया आ सकें ऐसा कीजियेगा। किसी भी प्रकारसे ववाणिया आनेमे उन्हे कल्पना करना योग्य नही है। अवश्य आ सके ऐसा कीजियेगा। लि. रायचदके प्रणाम। ५६५ बबई, फागुन सुदी १२, शुक्र, १९५१ जिस प्रकार बधनसे छूटा जाये, उस प्रकार प्रवृत्ति करना, यह हितकारी कार्य है। बाह्य परिचयको सोच-सोचकर निवृत्त करना, यह छूटनेका एक प्रकार है। जीव इस बातका जितना विचार करेगा उतना ज्ञानीपुरुपके मार्गको समझनेका समय समीप आयेगा। __ आ० स्व० प्रणाम। बबई, फागुन सुदी १३, १९५१ अशरण ऐसे ससारमे निश्चित बुद्धिसे व्यवहार करना जिसे योग्य प्रतीत न होता हो और उस व्यवहारके सम्बधको निवृत्त करते हुए तथा कम करते हुए विशेषकाल व्यतीत हुआ करता हो, तो उस कामको अल्पकालमे करनेके लिये जीवको क्या करना योग्य है ? समस्त ससार मृत्यु आदिके भयसे अशरण है, वह शरणका हेतु हो ऐसी कल्पना करना मगमरीचिका जैसा है। सोच-सोच कर श्री तीर्थंकर, जैसोने भी उससे निवृत्त होना, छूटना यही उपाय खोजा है। उस ससारका मुख्य कारण प्रेमबन्धन तथा द्वेषबन्धन सब ज्ञानियोने स्वीकार किया है। उसकी आकूलतासे जीवको निजविचार करनेका अवकाश प्राप्त नहीं होता, अथवा होता हो तो ऐसे योगसे उस बन्धनके कारणसे आत्मवीय प्रवृत्ति नही कर सकता, और यह सब प्रमादका हेतु है, और वैसे प्रमादसे लेशमात्र समय काल भी निर्भय रहना या अजागृत रहना, यह इस जीवकी अतिशय निर्बलता है, अविवेकता है, भ्राति है, ओर अत्यंत दुर्निवार्य ऐसा मोह हे । समस्त ससार दो प्रवाहोसे बह रहा है, प्रेमसे और द्वेषसे । प्रेमसे विरक्त हुए बिना द्वेषसे छूटा नही जाता और जो प्रेमसे विरक्त हो उसे सर्वसगसे विरक्त हुए विना व्यवहारमे रहकर अप्रेम (उदास) दशा रखनी यह भयकर व्रत है। यदि केवल प्रेमका त्याग करके व्यवहारमे प्रवृत्ति की जाये तो कितने ही जीवोकी दयाका, उपकारका ओर स्वार्थका भग करने जैसा होता है, और वेसा विचार कर यदि दया उपकारादिके कारण कुछ प्रेमदशा रखते हुए चित्तमे विवेकीको क्लेश भी हुए बिना रहना नही चाहिये, तव उसका विशेष विचार किस प्रकारसे करे? ५६७ बंबई, फागुन सुदी १५, १९५१ श्री वीतरागको परम भक्तिसे नमस्कार ___ दो तार, दो पन तथा दो चिट्ठियां मिली है। श्री जिनेन्द्र जैसे पुरुषने गृहवासमे जो प्रतिवध नही किया है, वह प्रतिवध न होनेके लिये आना या पन लिखना नही हआ, उसके लिये अत्यंत दीनतासे क्षमा चाहता हूँ। संपूण वीतरागता न होनेसे इस प्रकार बरताव करते हुए अतरमे विक्षेप हुआ है, जिस विक्षेपको भी शान्त करना योग्य है, ऐसा मार्ग ज्ञानीने देखा है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy