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________________ ४५४ श्रीमद् राजचन्द्र रहती है, और वैसी उपाधि सहन करने योग्य अभी मेरा चित्त नही है। निरुपायताके सिवाय कुछ भी व्यवहार करनेका चित्त अभी मालूम नही होता, और जो व्यापार-व्यवहारकी निरुपायता है, उससे भी निवृत्त होनेकी चिंतना रहा करती है । तथा चित्तमे दूसरेको बोध देने योग्य जितनी योग्यता अभी मुझे नही लगती है, क्योकि जब तक सर्व प्रकारके विषम स्थानकोमे समवृत्ति न हो तब तक यथार्थ आत्मज्ञान कहा नही जाता, और जब तक वैसा हो तब तक तो निज अभ्यासकी रक्षा करना उचित है, और अभी उस प्रकारकी मेरी स्थिति होनेसे मैं ऐसे करता हूँ, वह क्षमायोग्य है, क्योकि मेरे चित्तमे अन्य कोई हेतु नही है। ___लौटते समय श्री वढवाणमे समागम करनेका मुझसे हो सकेगा तो पहिलेसे आपको लिखूगा, परतु मेरे समागममे आपके आनेसे मेरा वढवाण आना हुआ था, ऐसा उस प्रसंगके कारण दूसरोके जाननेमे आये तो वह मुझे योग्य नहीं लगता, तथा आपने व्यावहारिक कारणसे समागम किया है ऐसा कहना अयथार्थ है, जिससे यदि समागम होनेका मुझसे लिखा जाये तो जैसे बात अप्रसिद्ध रहे वैसे कीजियेगा, ऐसी विनती है। र तीनोके पत्र अलग लिख सकनेकी अशक्तिके कारण एक पत्र लिखा है। यही विनती । आ० स्व० प्रणाम। ५५९ . . . बबई, पौष वदी ३०, शनि, १९५१ शुभेच्छासम्पन्न भाई सुखलाल छगनलालके प्रति, श्री वीरमगाम। . । , समागमकी आपको इच्छा है और तदनुसार करनेमे सामान्यतः बाधा नही है, तथापि चित्तके कारण अभी अधिक समागममे आनेकी इच्छा नही होती। यहाँसे माघ सुदी पूर्णिमाको निवृत्त होनेका सम्भव दिखाई देता है. तथापि उस समय रुकने जितना अवकाश नही है, और उसका मुख्य कारण लिखा सो है, तो भी यदि कोई बाधा जैसा नही होगा तो स्टेशनपर मिलनेके लिये आगेसे आपका लिखूगा। मेरे आनेकी खबर विशेष किसीको अभी नही दीजियेगा, क्योकि अधिक समागममे आनेका उदासीनता रहती है। आत्मस्वरूपसे प्रणाम । बंबई, पौष, १९५१ - यदि ज्ञानीपुरुषके दढाश्रयसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद सलभ है, तो फिर क्षण क्षणमे आत्मोपयोगको स्थिर करना योग्य है, ऐसा जो कठिन मार्ग है वह ज्ञानीपूरुषके दढ आश्रयसे प्राप्त होना क्यो सुलभ न हो । क्योकि उस-उपयोगकी एकाग्रताके बिना तो मोक्षपदकी उत्पत्ति है नही । ज्ञानीपुरुषके वचनका दृढ आश्रय जिसे हो उसे सर्व साधन सुलभ हो जायें, ऐसा अखड़ निश्चय सत्पुरुषोने किया है । तो फिर हम कहते हैं कि इन, वृत्तियोका जय करना योग्य है, उन वत्तियोका जय क्यो न हो सके ? इतना सत्य है कि इस दुपमकालमे सत्सगकी समीपता या दृढ आश्रय विशेष चाहिये और असत्सगसे अत्यन्त निवृत्ति चाहिये, तो भी मुमुक्षुके लिये तो यही योग्य है कि वह कठिनसे कठिन आत्मसाधनकी प्रथम इच्छा करे , कि जिससे सर्व,साधन अल्पकालमे फलीभूत हो। । श्री तीर्थंकरने तो यहाँ तक कहा है कि जिन ज्ञानीपुरुषकी दशा ससारपरिक्षीण हुई है उन ज्ञानीपुरुषको परपरा कर्मबंध सम्भवित नही है, तो भी पुरुषार्थको मुख्य रखना चाहिये कि जो दूसरे जीवके लिये भी आत्मसाधन परिणामका हेतु हो। . . , , , , .
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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