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________________ श्रीमद् राजचन्द्र रूईके व्यापारके विषयमे कभी कभी करनेरूप कारण आप पत्र द्वारा लिखते है । उस विषयमे एक बारके सिवाय स्पष्टीकरण नही लिखा, इसलिये आज इकट्ठा लिखा है । आढ़तका व्यवसाय उत्पन्न हुआ उसमे कुछ इच्छाबल और उदयवल था । परन्तु मोतीका व्यवसाय उत्पन्न होनेमे तो मुख्य उदयवल था । बाको व्यवसायका अभी उदय मालूम नही होता । और व्यवसायकी इच्छा होना यह तो असंभव जैसी है । श्री रेवाशकरभाईसे आपने रुपयोकी मॉग की थी, वह पत्र भी मणि तथा केशवलालके पढनेमे आये उस तरह उनके पत्रमे रखा था । यद्यपि वे जानें इसमे कोई दूसरी वाधा नही है, परन्तु जीवको लौकिक भावनाका अभ्यास विशेप बलवान है, इससे उसका क्या परिणाम आया और हमने उस विपयमे क्या अभिप्राय दिया ? उसे जाननेकी उनकी आतुरता विशेष हो तो नही है । अभी रुपयेकी व्यवस्था करनी पडे उस लिये आपके व्यवसाय के सम्बन्धमे हमने कही हो, ऐसा अकारण उनके चित्तमे विचार आये । और अनुक्रमसे हमारे प्रति व्यावहारिक बुद्धि विशेष हो जाये, वह भी यथार्थ ही है वह भी योग्य कदाचित् ना ४४४ जीजीवाका लग्न माघ मासमे होगा या नही ? इस सम्बन्धमे ववाणियासे हमारे जाननेमे कुछ नही आया, तथा मैने इस विषय मे कोई विशेष विचार नही किया है । ववाणिया से खबर मिलेगी तो आपको यहाँसे रेवाशकरभाई या केशवलाल सूचित करेंगे । अथवा रेवाशकरभाईका विचार माघ मासका होगा तो वे ववाणिया लिखेंगे, और आपको भी सूचित करेगे । उस प्रसगपर आना या न आना, इसका पक्का फैसला अभी चित्त नही कर सकेगा, क्योकि उसे बहुत समय है और अभीसे उसके लिये कुछ निश्चित करना कठिन है। तीन वर्षसे उधर जाना नही हुआ, जिससे श्री रवजीभाईके चित्तमे तथा माताजीके चित्तमे, हमारा जाना न हो तो अधिक खेद रहे, यह मुख्य कारण उस तरफ आनेमे है । तथा हमारा आना न हो तो भाई-बहनोको भी खेद रहे, यह दूसरा कारण भी उधर आनेके विचारको बलवान करता है । और बहुत करके आना होगा, ऐसा चित्तमे लगता है । हमारा चित्त पौष मासके आरम्भमें यहाँसे निकलनेका रहता है, और वीचमें रुकना हो तो प्रवृत्तिके कारण लगी हुई थकावटमे कुछ विश्राति क्वचित् मिले । परन्तु कितना ही कामकाज ऐसा है कि निर्धारित दिनोसे कुछ अधिक दिन जानेके बाद यहाँसे छूटा जा सकेगा । आप अभी किसीको व्यापार - रोजगारकी प्रेरणा करते हुए इतना ध्यान रखें कि जो उपाधि आपको स्वय करनी पडे उस उपाधिकी आप उदीरणा करना चाहते हैं । और फिर उससे निवृत्ति चाहते हैं । यद्यपि चारो तरफके आजीविकादि कारणोसे उस कार्यकी प्रेरणा करनेकी आपके चित्तमे उदयसे स्फुरणा होती होगी तो भी उस सम्बन्धी चाहे जैसी घबराहट होने पर भी धीरतासे विचार कर कुछ भी व्यापार- रोजगारकी दूसरोको प्रेरणा करना या लड़कोको व्यापार करानेके विषय मे भी सूचना लिखना । क्योकि अशुभ उदयको इस तरह दूर करनेका प्रयत्न करते हुए वल प्राप्त करने जैसा हो जाता है । आप हमे यथासंभव व्यावहारिक बात कम लिखे ऐसा जो हमने लिखा था उसका हेतु मात्र इतना ही हे कि हम इतना व्यवहार करते हैं, उस विचारके साथ दूसरे व्यवहारको सुनते-पढते आकुलता हो जाती है | आपके पत्र कुछ निवृत्तिवार्ता आये तो अच्छा, ऐसा रहता है । और फिर आपको हमे व्यावहारिक वात लिखने का कोई हेतु नही है, क्योकि वह हमारी स्मृतिमे है और कदाचित् आप घबराहटको शात करनेके लिये लिखते हो उस प्रकारसे वह लिखी नही जाती है । बात आर्त्तध्यानके रूप जैसी लिखी जाती है, जिससे हमे बहुत संताप होता है । यही विनती । 1 प्रणाम ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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