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________________ २८ वो वर्ष 'योगवासिष्ठ' का पठन पूरा हुआ हो तो कुछ समय उसका अवकाश रखकर अर्थात् अभी फिरसे पढना बन्द रखकर 'उत्तराध्ययनसूत्र' को विचारियेगा, परन्तु उसे कुलसंप्रदायके आग्रहार्थको निवृत्त करनेके लिये विचारियेगा । क्योकि जीवको कुलयोगसे जो सप्रदाय प्राप्त हुआ होता है, वह परमार्थरूप है या नही? ऐसा विचार करते हुए दृष्टि आगे नही चलती और सहजमे उसे ही परमार्थ मानकर जीव परमार्थ चूक जाता है । इसलिये मुमुक्षुजीवका तो यही कर्तव्य है कि जीवको सद्गुरुके योगसे कल्याणकी प्राप्ति अल्पकालमे हो, उसके साधन, वैराग्य और उपशमके लिये 'योगवासिष्ठ', 'उत्तराध्ययनादि' विचा. रणीय है, तथा प्रत्यक्ष पुरुषके वचनकी निराबाधता, पूर्वापर अविरोधिता जाननेके लिये विचारणीय है। आ० स्व० प्रणाम । __५३५ बंबई, कार्तिक सुदी ३, बुध, १९५१ आपको दो चिट्ठियाँ लिखी थी, वे मिली होगी । हमने संक्षेपमे लिखा है। अभिन्नभावसे लिखा है। इसलिये कदाचित् उसमे कुछ आशकायोग्य नहीं है। तो, भी सक्षेपके कारण समझमे न आये, ऐसा कुछ हो तो पूछनेमे आपत्ति नही है। श्रीकृष्ण चाहे जिस गतिको प्राप्त हुए हो, परन्तु विचार करनेसे वे आत्मभाव-उपयोगी थे, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। जिन श्रीकृष्णने काचनकी द्वारिकाका, छप्पन करोड यादवो द्वारा सगहीतका. पंचविषयके आकर्षक कारणोके योगमे स्वामित्व भोगा, उन श्रीकृष्णने जब देहको छोडा है तब क्या स्थिति थी, वह विचार करने योग्य है, और उसे विचारकर इस जीवको अवश्य आकुलतासे मुक्त करना योग्य है। कुलका सहार हुआ है, द्वारिकाका दाह हुआ है, उसके शोकसे शोकवान अकेले वनमे भमिपर आधार करके सो : रहे हैं, वहाँ जराकुमारने .जब बाण मारा, उस समय भी जिन्होने धेर्यको अपनाया है उन श्रीकृष्णकी दशा विचारणीय है। ५३६ __बम्बई, कार्तिक सुदी ४, गुरु, १९५१ आज एक पत्र प्राप्त हुआ है, और उस सम्बन्धमे यथाउदय समाधान लिखनेका, विचार करता हूँ, और वह पत्र तुरत लिखूगा। समक्षजीवको दो प्रकारकी दशा रहती है, एक 'विचारदशा' और दूसरी 'स्थितप्रज्ञदशा'। स्थितप्रज्ञदशा विचारदशाके लगभग पूरी हो जानेपर अथवा सम्पूर्ण होनेपर प्रगट होती है। उस स्थितप्रज्ञदशाकी प्राप्ति इस कालमे कठिन है, क्योकि इस कालमें आत्मपरिणामके लिये व्याघातरूप योग प्रधानरूपसे रहता है, और इससे विचारदशाका योग भी सद्गुरु और सत्सगके अभावसे प्राप्त नही होता; वैसे कालमे कृष्णदास विचारदशाको इच्छा करते हैं, यह विचारदशा प्राप्त होनेका मुख्य कारण है, और ऐसे जीवको भय, चिता, पराभव आदि भाव निजबुद्धि करना योग्य नहीं है, तो भी धैर्यसे उन्हे समाधान होने और निर्भय चित्त रखवाना योग्य है। ५३७ बम्बई, कार्तिक सुदी ७, शनि, १९५१ श्री सत्पुरुषोको नमस्कार श्री स्यभतीर्थवासी मुमुक्षुजनोंके प्रति, श्री मोहमयी भूमिसे · का आत्मस्मृतिपूर्वक ययायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती कि ममक्ष अंबालालका लिखा हुआ एक पत्र आज प्राप्त हुआ है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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