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________________ २७ वो वर्ष ४३९ उपदेशके रूपमे लाभ लेना चाहिये और ब्रह्मादिके स्वरूपका सिद्धात करनेकी जजालमे न पड़ना चाहिये यह मुझे ठीक लगता है। २७. प्र०-जब मुझे सर्प काटने आये तब मुझे उसे काटने देना या मार डालना ? उसे दूसरी तरह से दूर करनेकी शक्ति मुझमे न हो, ऐसा मानते हैं। उ.-आप सर्पको काटने दें, ऐसा काम बताते हुए विचारमे पड़ने जैसा है। तथापि आपने यदि ऐसा जाना हो कि 'देह अनित्य है', तो फिर इस असारभूत देहके रक्षणके लिये, जिसे देहमे प्रीति है, ऐसे सर्पको मारना आपके लिये कैसे योग्य हो? जिसे आत्महितकी इच्छा हो, उसे तो वहाँ अपनी देह छोड़ देना ही योग्य है। कदाचित् आत्महितकी इच्छा न हो, वह क्या करे ? तो इसका उत्तर यही दिया जाये कि वह नरकादिमे परिभ्रमण करे, अर्थात् सर्पको मारे ऐसा उपदेश कहाँसे कर सकते हैं ? अनार्यवृत्ति हो तो मारनेका उपदेश किया जा सकता है । वह तो हमे तुम्हे स्वप्नमे भी न हो, यही इच्छा करने योग्य है। अब सक्षेपमे इन उत्तरोको लिखकर पत्र पूरा करता हूँ। 'षड्दर्शनसमुच्चय'को विशेष समझनेका प्रयत्न कीजियेगा । इन प्रश्नोके उत्तर संक्षेपमे लिखनेसे आपको समझनेमे कहीं भी कुछ दविधा हो तो भी विशेषतासे विचारियेगा, और कुछ भी पत्र द्वारा पूछने योग्य लगे तो पूछियेगा, तो प्राय. उसका उत्तर लिखूगा । समागममे विशेष,ममाधान होना अधिक योग्य लगता है। . लि० आत्मस्वरूपमे नित्य निष्ठाके हेतुभूत विचारकी चिंतामे रहनेवाले रायचंदके प्रणाम। ५३१ बबई, आसोज वदी ३०, १९५० आपके लिखे हुए तीनो पत्र मिले हैं। जिसका परमार्थ हेतुसे प्रसग हो वह यदि आजीविकादिके प्रसंगके विषयमे थोडीसी बात लिखे या सूचित करे, तो उससे परेशानी हो आती है। परतु यह कलिकाल महात्माके चित्तको भी ठिकाने रहने दे, ऐसा नहीं है, यह सोचकर मैंने आपके पत्र पढे है। उनमे व्यापार की व्यवस्थाके विषयमे आपने जो लिखा, वह अभी करने योग्य नहीं है। बाकी उस प्रसगमे आपने जो कुछ सूचित किया है उसे या उससे अधिक आपके वास्ते कुछ करना हो तो इसमे आपत्ति नही है। क्योकि आपके प्रति अन्यभाव नही है। ५३२ बबई, आसोज वदी ३०, १९५० आपके लिखे हुए तीन पत्रोके उत्तरमे एक चिट्ठी' आज लिखी है। जिसे बहुत सक्षेपमे लिखा होने से उनका उत्तर कदाचित न समझा जा सके, इसलिये फिर यह चिट्ठी लिखी है। आपका निर्दिष्ट कार्य आत्मभावका त्याग किये बिना चाहे जो करनेका हो तो उसे करनेमे हमे विषमता नही है। चित्त, अभी- आप जो काम लिखते हैं उसे करनेमे फल नही है, ऐसा समझकर आप उस विचारका उपशमन करे, ऐसा कहता है। आगे क्या होता हे उसे धीरतासे साक्षीवत् देखना श्रेयरूप है। तथा अभी कोई दूसरा भय रखना योग्य नहीं है । और ऐसी ही स्थिति बहुत काल तक रहनेवाली है, ऐसा है ही नही। प्रणाम। १ देखें आक ५३१
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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