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________________ ४२८ श्रीमद राजचन्द्र सोना औपचारिक द्रव्य है, ऐसा जिनेन्द्रका अभिप्राय है, और जब अनंत परमाणुओके समुदायरूपसे वह रहता है तव चक्षुगोचर होता है। उसकी जो भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन सकती हैं वे सभी सयोगभावी हैं, और फिरसे वे एकत्र की जा सकती है, वह उसी कारणसे है। परन्तु सोनेका मूल स्वरूप देखें तो अनंत परमाणु-समुदाय है। जो भिन्न भिन्न परमाणु है वे सब अपने अपने स्वरूपमे ही रहे हए हैं। कोई भी परमाणु अपने स्वरूपको छोडकर दूसरे परमाणुरूपसे किसी भी तरह परिणमन करने योग्य नही है, मात्र वे सजातीय होनेसे और उनमे स्पर्शगुण होनेसे उस स्पर्शके समविषमयोगसे उनका मिलना हो सकता है, परन्तु वह मिलना कुछ ऐसा नहीं हैं, कि जिसमे किसी भी परमाणुने अपने स्वरूपका त्याग कर दिया हो । करोडो प्रकारसे उस अनत परमाणुरूप सोनेकी आकृतियोको यदि एक रसरूप करें, तो भी सबके सब परमाणु अपने हो स्वरूपमे रहते हैं, अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका त्याग नही करते, क्योकि वैसा होनेका किसी भी तरहसे अनुभव नही हो सकता। उस सोनेके अनत परमाणुओके अनुसार अनत सिद्धकी अवगाहना माने तो बाधा नही है, परन्तु इससे कुछ कोई भी जीव किसी भी दूसरे जीवके साथ सर्वथा एकत्वरूपसे मिल गया है, ऐसा है ही नही । सब निजभावमे स्थिति करके ही रह सकते हैं । प्रत्येक जीवकी जाति एक हो, इससे जो एक जीव है वह अपनापन त्याग करके दूसरे जीवोके समुदायमे मिलकर स्वरूपका त्याग कर देता है, ऐसा होनेका क्या हेतु है ? उसके अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, कमबध और मुक्तावस्था, ये अनादिसे भिन्न हैं, और मुक्तावस्थामे फिर वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावका त्याग करे, तो फिर उसका अपना स्वरूप क्या रहा? उसका क्या अनुभव रहा ?' और अपने स्वरूपके जानेसे उसकी कर्मसे मुक्ति हुई अथवा अपने स्वरूपसे मुक्ति हुई ? यह प्रकार विचार करने योग्य है । इत्यादि प्रकारसे जिनेन्द्रने सर्वथा एकत्वका निषेध किया है। - अभी समय नहीं होनेसे इतना लिखकर पत्र पूरा करना पड़ता है । यही विनती । । । . आ० स्व० प्रणाम । बबई, भादो सुदी ८, शुक्र, १९५० श्री स्थभतीर्थक्षेत्रमे स्थित श्री अबालाल, कृष्णदास आदि सर्व मुमुक्षुजनके प्रति, श्री मोहमयी क्षेत्रसे आत्मस्वरूपकी स्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती कि आप, सब भाइयोके प्रति आज दिन तक हमसे मन, वचन, कायाके योगसे जानते या अजानते कुछ भी अपराध हुआ हो उसकी विनयपूर्वक शुद्ध अत करणसे क्षमा मांगता हूँ। यही विनती। . .आ० स्व० प्रणाम । ५२५ वबई, भादो सुदी १०, रवि, १९५० ___ यह आत्मभाव है और यह अन्यभाव है, ऐसा बोधवीज आत्मामे परिणमित होनेसे अन्यभावमे सहजमे उदासीनता उत्पन्न होती है, और वह उदासीनता अनुक्रमसे उन अन्यभावसे सर्वथा मुक्त करती है। जिसने निजपरभावको जाना है, ऐसे ज्ञानीपुरुषको, उसके पश्चात् परभावके कार्यका जो कुछ प्रसग रहता है उस प्रसगमे प्रवृत्ति करते-करते भी उससे उस ज्ञानीका सम्बन्ध छूटा करता है, परतु उसमें हितबुद्धि होकर प्रतिवध नही होता। , प्रतिबध नही होता यह बात एकान्त नहीं है, क्योकि जहाँ ज्ञानकी विशेष प्रबलता नही होती वहां परभावके विशेष परिचयका प्रतिवधरूप हो जाना भी सम्भव है, और इसलिये भी श्री जिनेन्द्रन ज्ञानी पुरुषके लिये भो निजज्ञानके परिचय-पुरुषार्थको सराहा है; उसे भी प्रमाद कर्तव्य नहीं है, अथवा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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