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________________ २७ वॉ वर्ष ४२५ जो बलवान कारण प्रभावना हेतुके अवरोधक हैं, उनमे हमारा बुद्धिपूर्वक कुछ भी प्रमाद हो, ऐसा किसी तरह सम्भव नही है। तथा अव्यक्तरूपसे अर्थात् न जाननेपर भी 'जो सहजमे जीवसे हुआ करता हो, ऐसा प्रमाद हो, यह भी प्रतीत नही होता । तथापि किसी अशमे उस प्रमादका सम्भव समझते हुए भी उससे अवरोधकता हो, ऐसा लग नही सकता, क्योकि आत्माको निश्चयवृत्ति उससे असन्मुख है। लोगोमे वह प्रवृत्ति करते हुए मानभग होनेका प्रसग आये तो वह मानभग भी सहन न हो सके, ऐसा होनेसे प्रभावना हेतुकी उपेक्षा की जाती हो, ऐसा भी नही लगता। क्योकि उस मानामानमे चित्त प्राय' उदासीन जैसा है, अथवा उस प्रकारमे चित्तको विशेष उदासीन किया हो तो हो सके ऐसा है। । शब्दादि विषयोका कोई बलवान कारण भी अवरोधक हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। केवल उन विषयोका क्षायिकभाव हैं, ऐसा यद्यपि कहनेका प्रसग नहीं है, तथापि उनमे अनेकरूपसे विरसता भास रही है। उदयसे भी कभी मद रुचिका जन्म होता हो तो वह भी विशेष अवस्था पानेसे पहले नाशको प्राप्त होतो है. और उस मद रुचिका वेदन करते हुए भी आत्मा खेदमे ही रहता है, अर्थात् वह रुचि ' अनाधार होतो जाती होनेसे बलवान कारणरूप नही है । । अन्य कई प्रभावक हुए हैं, उनको अपेक्षा किसी तरह विचारदशादिकी प्रबलता भी होगी, 'ऐमा लगता है कि वैसे प्रभावक पुरुष आज दिखायी नहीं देते, और मात्र उपदेशकरूपसे नाम जैसी प्रभावनासे प्रवर्तन करते हुए कई देखनेमे, सुननेमे आते हैं, उनकी विद्यमानताके कारण हमे कुछ अवरोधकता हो ऐसा भी प्रतीत नही होता। ___. अभी तो इतना लिखा जा सका है। विशेष समागमके प्रसगपर अथवा अन्य प्रसगपर बतायेंगे। इस विषयमे आप और श्री डुगर यदि कुछ भी विशेष लिखना चाहते हो, तो खुशीसे लिखियेगा। और हमारे लिखे हुए कारण मात्र बहानारूप हैं ऐसा विचार करना योग्य नहीं है, इतना ध्यान रखियेगा।' ५२१ ___वंबई, श्रावण, १९५० जिस पत्रमे प्रत्यक्ष आश्रयका स्वरूप लिखा है वह पत्र यहाँ प्राप्त हुआ है। मुमुक्षुजीवको परम भक्तिसहित उस स्वरूपकी उपासना करना योग्य है। __ योगबलसहित, अर्थात् जिनका उपदेश बहुतसे जीवोको थोडे ही प्रयाससे मोक्षसाधनरूप हो सके ऐसे अतिशयसहित जो सत्पुरुष हो, वे जब यथाप्रारब्ध उपदेश व्यवहारका उदय प्राप्त होता है तब मुख्यरूपसे प्राय उस भक्तिरूप प्रत्यक्ष आश्रयमार्गको प्रगट करते हैं, परन्तु वैसे उदययोगके विना प्राय प्रगट नहीं करते। ___सत्पुरुष प्राय. दूसरे व्यवहारके योगमे मुख्यत उस मार्गको प्रगट नही करते, यह उनकी करुणा स्वभावता है। जगतके जीवोका उपकार पूर्वापर विरोधको प्राप्त न हो अथवा बहुतसे जीवोका उपकार हो इत्यादि अनेक कारण देखकर अन्य व्यवहारमे रहते हुए सत्पुरुष वैसे प्रत्यक्ष आश्रयरूप मार्गको प्रगट नही करते । प्राय. अन्य व्यवहारके उदयमे तो वे अप्रसिद्ध रहते हैं; अथवा कुछ प्रारब्ध विशेषसे सत्पुरुषरूपसे किसीके जाननेमें आये, तो भी पूर्वापर उसके श्रेयका विचार करके यथासम्भव विशेष प्रसगमे नही आते, अथवा प्राय अन्य व्यवहारके उदयमे सामान्य मनुष्यको तरह विचरते हैं। वैसी प्रवत्ति की जाये ऐसा प्रारब्ध न हो तो जहाँ कोई वैस उपदेशका अवसर प्राप्त होता है वहाँ भी 'प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग' का प्रायः उपदेश नहीं करते। क्वचित् 'प्रत्यक्ष आश्रयमार्ग' के स्थानपर 'आश्रयमार्ग' ऐसे सामान्य शब्दसे, बहुत उपकारका हेतु देखकर कुछ कहते है। अर्थात् उपदेशव्यवहारका प्रवर्तन करनेके लिये उपदेश नही करते।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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