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________________ २७ वा वर्ष . ४२३ सब भाइयोको, जिस प्रकारसे जीवको शात, दात भावका उद्भव हो उस प्रकारसे पढने आदिका समागम करना योग्य है। यह बात बलवान करने योग्य है। ।। ५१८ . . . ववई, श्रावण वदो ९, १९५० . 'योगवासिष्ठ'-जीवमे जिस प्रकार त्याग, वैराग्य और उपशम गुण प्रगट हो, उदयमे आये, वह प्रकार ध्यानमे रखनेका समाचार जिस पत्रमे लिखा, वह पत्र प्राप्त हुआ है। ये गुण जब तक जीवमे स्थिर नही होते तब तक जीवसे आत्मस्वरूपका यथार्थरूपसे विशेष विचार होना कठिन है। आत्मा रूपी है, अरूपी है, इत्यादि विकल्पोका जो उसके पहले विचार किया जाता है, वह कल्पना जैसा है । जीव कुछ भी गुण प्राप्तकर यदि शीतल हो जाये तो फिर उसे विशेप विचार कर्तव्य है। आत्मदर्शनादि प्रसग, तीव्र मुमुक्षुता उत्पन्न होनेसे पहले प्रायः कल्पितरूपसे समझमे आते है, जिससे अभी तत्सम्बन्धी प्रश्न शात करने योग्य है । यही विनती । ५१९ बवई, श्रावण वदी , गनि, १९५० प्रारब्धवशात् चारो दिशाओसे प्रसगके दवावसे कितने ही व्यवसायी कार्य खड़े हो जाते हैं, परन्तु चित्तपरिणाम साधारण प्रसगमे प्रवृत्ति करते हुए विशेष सकुचित रहा करते होनेसे इस प्रकारके पत्र आदि लिखना आदि नही हो सकता, जिससे अधिक नहीं लिखा गया, उसके लिये आप दोनो क्षमा करे। . ५२० बवई, श्रावण वदी ३०, गुरु, १९५० श्री सायला.ग्राममे स्थित, परमस्नेही श्री सोभागको, श्री मोहमयी क्षेत्रसे-के भक्तिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती है कि आपका लिखा पत्र आया है । उसका नीचे लिखा उत्तर विचारियेगा। - ज्ञानवा के प्रसगमे उपकारी कितने ही प्रश्न आपको उठते है, वे आप हमे लिखते हैं, और उनके समाधानको आपको विशेष इच्छा रहती है, इसलिये यदि किसी भी प्रकारसे आपको उनका समाधान लिखा जाये तो ठीक, ऐसा चित्तमे रहते हुए भी उदययोगसे वैसा नही हो पाता। पत्र लिखनेमे चित्तकी स्थिरता बहुत ही कम रहती है । अथवा चित्त उस कार्यमे अल्प मात्र छाया जैसा प्रवेश कर सकता है। जिससे आपको विशेष विस्तारसे पत्र नही लिखा जाता। चित्तकी स्थितिके कारण एक एक पत्र लिखते हए दस-दस, पाँच-पांच बार, दो-दो चार-चार पक्तियाँ लिखकर उस पत्रको अधूरा छोड़ देना पड़ता है। क्रियामे रुचि नहीं है, और अभी प्रारब्ध वल भी उस क्रियामे विशेष उदयमान नही होनेसे आपको तथा अन्य मुमुक्षुओको विशेषरूपसे कुछ ज्ञानचर्चा नही लिखी जा सकती। इस विषयमे चित्तम खेद रहता है, तथापि अभी तो उसका उपशम करनेका ही चित्त रहता है। अभी कोई ऐसी ही आत्मदशाको स्थिति रहती है। प्रायः जान-बूझकर कुछ करनेमे नही आता, अर्थात् प्रमाद आदि दोपके कारण वह क्रिया नही होती, ऐसा प्रतीत नही होता। समयसार' ग्रन्थके कवित्त आदिका आप जो मुखरस सम्बन्धी ज्ञानविषयक अर्थ समझते हैं, वह वैसा ही है, ऐसा सर्वत्र है, ऐसा कहना योग्य नहीं है। बनारसीदासने 'समयसार' ग्रन्यको हिन्दी भाषामे करते हुए बहुतसे कवित्त, सवैया इत्यादिमे वैसी ही बात कही है, और वह किसी तरह 'वीजज्ञान' से मिलती हुई प्रतीत होती है । तथापि कही कही वैसे शब्द उपमारूपसे भी आते हैं । बनारसीदासने 'समयसार' रचा है, उसमे वे शब्द जहाँ जहाँ आये हैं, वहाँ वहाँ सर्वत्र उपमारूप हैं, ऐसा नहीं लगता, परन्तु
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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