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________________ ४२१ २७ वा वर्ष . नही हो सकता, अर्थात् साधारण सम्बन्ध होता है ऐसा कहे, तो भी अग्नि, शस्त्र आदिमे जो अवकाश है, उस अवकाशमेसे उन एकेन्द्रिय जीवोका सुगमतासे गमनागमन हो सके, ऐसा होनेसे उन जीवोका नाश हो सके अथवा उनका व्याघात हो, ऐसा अग्नि, शस्त्र आदिका सम्वन्ध उन्हे नही होता। यदि उन जीवोकी अवगाहना महत्त्ववाली हो अथवा अग्नि आदिकी अत्यन्त सूक्ष्मता हो कि जो उस एकेन्द्रिय जीव जैसी सूक्ष्मता गिनी जाये तो, वह एकेन्द्रिय जीवका व्याघात करनेमे सम्भवित मानी जाये, परन्तु ऐसा नही है । यहाँ तो जीवोका अत्यन्त सूक्ष्मत्व है, और अग्नि, शस्त्र आदिका महत्त्व है, जिससे व्याघातयोग्य सम्बन्ध नही होता, ऐसा भगवानने कहा है। अर्थात् औदारिक शरीर अविनाशी कहा है ऐसा नही है, स्वभावसे वह विपरिणामको प्राप्त होकर अथवा उपार्जित किये हुए ऐसे उन जीवोके पूर्वकर्म परिणमित होकर औदारिक शरीरका नाश करते है। वह शरीर कुछ दूसरेसे ही नाशको प्राप्त किया जाये तो ही नाश हो, ऐसा भी नियम नही है । यहाँ अभी व्यापारसम्बन्धी प्रयोजन रहता है । इसलिये तुरत थोडे समयके लिये भी निकल संकना दुष्कर है । क्योकि प्रसग ऐसा है कि जिसमे मेरी विद्यमानताको प्रसगमे आनेवाले लोग आवश्यक समझते हैं। उनका मन दुखी न हो सके, अथवा उनके कामको ''यहाँसे मेरे दूर हो जानेसे कोई प्रबल हानि न हो सके, ऐसा व्यवसाय हो तो वैसा करके थोडे समयके लिये - इस प्रवृत्तिसे अवकाश लेनेका चित्त है, तथापि आपकी तरफ आनेसे लोगोके परिचयमे अवश्य आनेका सम्भव होनेसे उस तरफ आनेका चित्त होना मुश्किल है। इस प्रकारके प्रसग रहनेपर भी लोगोके परिचयमे धर्मप्रसगसे आना हो, उसे विशेष आशका योग्य समझकर यथासम्भव उस परिचयसे धर्मप्रसगके नामसे विशेषरूपसे दूर रहनेका चित्त रहा करता है। वैराग्य-उपशमका बल बढे उस प्रकारके सत्सग एव सत्शास्त्रका परिचय करना, यह जीवके लिये परम हितकारी हे । दूसरा परिचय यथासभव निवर्तन करने योग्य है। आ० स्व० प्रणाम । ५१३ मोहमयी, श्रावणं सुदी ११, रवि, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति विनती कि --- दो पत्र प्राप्त हुए हैं । यहाँ भावसमाधि है। 'योगवासिष्ठ' आदि ग्रन्थ पढने-विचारनेमे कोई दूसरी बाधा नहीं है। हमने पहिले लिखा था कि उपदेशग्रन्थ समझकर ऐसे ग्रन्थ विचारनेसे जीवको गुण प्रगट होता है। प्राय वैसे गन्थ वैराग्य और उपशमके लिये है। सिद्धातज्ञान सत्पुरुषसे जाननेयोग्य समझकर जीवमे सरलता, निरहता आदि गणोका उद्भव होनेके लिये 'योगवासिष्ठ', 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृताग' आदिके विचारनेमे वाधा नही हे इतना स्मरण रखिये। वेदात और जिन सिद्धात इन दोनोमे अनेक प्रकारसे भेद है । वेदान्त एक ब्रह्मस्वरूपसे सर्व स्थिति कहता है । जिनागममे उससे दूसरा प्रकार कहा है । 'समयसार' पढते हुए भी बहुतसे जीवोका एक ब्रह्मकी मान्यतारूप सिद्धात हो जाता है। सिद्धातका विचार, बहुत सत्संगसे तथा वैराग्य और उपशमका वल विशेषरूपसे वढनेके बाद कर्तव्य है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो जीव दूसरे मार्गमे आरूढ होकर वैराग्य ओर उपशमसे हीन हो जाता है। ‘एक ब्रह्मस्वरूप' विचारनेमे बाधा नहीं है, अथवा 'अनेक आत्मा' विचारनेमे बाधा नही है । आपको अथवा किसो मुमुक्षुको मात्र अपना स्वल्प जानना ही मुख्य कर्तव्य है, और उसे जाननेके साधन शम, सन्तोप, विचार और सत्सग है। उन साधनोके सिद्ध होनेपर,
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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