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________________ २७ वॉ वर्ष ४६ अर्थात् ये दो गुण विपर्यासबुद्धिको पर्यायातर करके सद्धि करते हैं, और वह सदबुद्धि, जीवाजीवा पदार्थकी व्यवस्था जिससे ज्ञात होती है ऐसे सिद्धातकी विचारणा करने योग्य होती है। क्योकि जै चक्षुको पटलादिका अन्तराय दूर होनेसे पदार्थ यथावत् दीखता है वैसे हो अहंतादि पटलकी मदता होने जीवको ज्ञानीपुरुपके कहे हुए सिद्धातभाव, आत्मभाव विचारचक्षुसे दिखायी देते है। जहाँ वैराग्य में उपशम बलवान हैं, वहाँ विवेक बलवानरूपमे होता है, जहाँ वैराग्य और उपशम वलवान नही होते व विवेक प्रबल नहीं होता, अथवा यथावत् विवेक नही होता । सहज आत्मस्वरूप ऐसा केवलज्ञान भी प्रथा मोहनीय कर्मके क्षयके बाद प्रगट होता है । और इस बातसे उपर्युक्त सिद्धात स्पष्ट समझा जा सकेगा। फिर ज्ञानीपुरुषोकी विशेष शिक्षा वैराग्य-उपशमका प्रतिबोध करती हुई दिखायी देती है । जिनागम पर दृष्टि डालनेसे यह बात विशेष स्पष्ट जानी जा सकेगी। 'सिद्धातबोध' अर्थात् जीवाजीव पदार्थव विशेषरूपसे कथन उस आगममे जितना किया है, उसकी अपेक्षा विशेषरूपसे, अति विशेषरूपसे वैराग और उपशमका कथन किया हैं, क्योकि उसकी सिद्धि होनेके पश्चात् सहजमें ही विचारकी निर्मलता होग और विचारकी निर्मलता सिद्धातरूप कथनको सहजमे ही अथवा थोड़े हो परिश्रमसे अगीकार कर सकत है, अर्थात् उसको भी सहजमे ही सिद्धि होगी, और वैसा ही होते रहनेसे जगह जगह इसी अधिकारव व्याख्यान किया है। यदि जीवको आरभ-परिग्रहको विशेष प्रवृत्ति रहती हो तो, वैराग्य और उपशम ह तो उनका भी नष्ट हो जाना सभव है, क्योकि आरभ-परिग्रह अवैराग्य और अनुपशमके मूल हैं, वैराग. और उपशमके काल हैं। श्री ठाणागसूत्रमे आरभ और परिग्रहके बलको बताकर, फिर उससे निवृत्त होना योग्य है, यः उपदेश करनेके लिये इस भावसे द्विभगी कही है - १ जीवको मतिज्ञानावरणीय कब तक हो ? जव तक आरभ और परिग्रह हो तब तक । २ जीवको श्रतज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरंभ और परिग्रह हो तब तक । ३ जीवको अवधिज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक । ४ जोवको मन.पर्यायज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक । ५ जीवको केवलज्ञानावरणीय कब तक हो ? जब तक आरम्भ और परिग्रह हो तब तक। ऐसा कहकर दर्शनादिके भेद बताकर सत्रह बार वही की वही बात बतायी है कि वे आवर तब तक रहते है जब तक आरम्भ और परिग्रह हो। ऐसा परिग्रहका बल बताकर फिर अापत्तिरूप पुनः उसका वही कथन किया है। १ जीवको मतिज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर । २ जीवको श्रुतज्ञान कव उपजे ? आरम्भ परिग्रहसे निवृत्त होने पर। ३ जोवको अवधिज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर। ४ जीवको मन.पर्यायज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिग्रहसे निवृत्त होने पर । ५ जीवको केवलज्ञान कब उपजे ? आरम्भ-परिगहसे निवृत्त होने पर। इस प्रकार सत्रह प्रकारोको फिरसे कहकर, आरम्भ-परिग्रहकी निवृत्तिका फल, जहाँ अंतमे केवल ज्ञान के वहाँ तक लिया है; और प्रवृत्तिके फलको केवलज्ञान तकके आवरणका हेतुरूप कहकर, उसको अत्यन्त प्रवलता बताकर, जीवको उससे निवृत्त होनेका ही उपदेश किया है। वार वार ज्ञानीपुरुषों वचन जीवको इस उपदेशका हो निश्चय करनेको प्रेरणा करना चाहते है, तथापि अनादि असत्संगसे उत्पन्न हुई ऐसी दुष्ट इच्छा आदि भावोमे मूढ बना हुआ यह जीव प्रतिवोध नही पाता, और उन भावो
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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