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________________ २७ वॉ वर्ष ४११ नुसार कहना योग्य हो तो कहना, और उनके प्रति अद्वेषभाव है, यह सब उनके ध्यानमे आये, ऐसी वृत्ति और रीतिसे बरताव करना, इसमे सशय करना योग्य नही है। अन्य साधुके विपयमे आपको कुछ कहना योग्य नहीं है। समागममे आनेके बाद भी कुछ न्यूनाधिकता उनका क्षेप प्राप्त नही करना प्रति बलवान अद्वेष ५०३ बबई, वैशाख वदी ३०, १९५० श्री स्थभतीर्थक्षेत्रमे स्थित, शुभेच्छासम्पन्न भाई श्री अम्बालालके प्रति यथायोग्य विनती कि : आपका लिखा हुआ एक पत्र पहुंचा हे । यहाँ कुशलता है। सूरतसे मुनिश्री लल्लुजीका एक पत्र पहले आया था। उसके उत्तरमे एक पत्र यहाँसे लिखा था। उसके बाद पांच-छ. दिन पहले उनका एक पत्र था. जिसमे आपके प्रति जो पत्रादि लिखना हुआ, उसके सम्बन्धमे हुई लोकच के विपयमे बहुतसी बातें थी, उस पत्रका उत्तर भी यहाँसे लिखा है । यह सक्षेपमे इस प्रकार है। प्राणातिपातादि पाँच महाव्रत है वे सब त्यागके है, अर्थात् सब प्रकारके प्राणातिपातसे निवृत्त होना सब प्रकारके मृषावादसे निवृत्त होना, इस प्रकार साधुके पाँच महावत होते है। और जब साधु इस आज्ञाके अनुसार चले तब वह मुनिके सम्प्रदायमे है, ऐसा भगवानने कहा है। इस प्रकार पाँच महानतोका उपदेश करनेपर भी जिसमे प्राणातिपातका कारण है ऐसी नदीको पार करने आदिको क्रियाकी आज्ञा भी जिनेद्रने दी है। वह इस अर्थमे कि नदीको पार करनेमे जीवको जो वध होगा उसकी अपेक्षा एक क्षेत्रमे निवास करनेसे बलवान वध होगा और परम्परासे पाँच , महाव्रतोकी हानिका प्रसग आयेगा, यह देखकर, जिसमे द्रव्य प्राणातिपात है, ऐसी नदीको पार करनेकी आज्ञा श्री जिनेंद्रने दी है। इसी प्रकार वस्त्र, पुस्तक रखनेसे सर्वपरिग्रहविरमणव्रत नही रह सकता, फिर भी देहके सातार्थका त्याग कराकर आत्मार्थ साधनेके लिये देहको साधनरूप समझकर उसमेसे सम्पूर्ण मूर्छा दूर होने तक वस्त्रके नि स्पृह सम्बन्धका और विचारवल बढने तक पुस्तकके सम्बन्धका उपदेश जिनेन्द्रने दिया है। अर्थात् सर्व त्यागमे प्राणातिपात तथा परिग्रहका सब प्रकारसे अगीकार करनेका निपेध होने पर भी, इस प्रकारसे अगीकार करनेकी आज्ञा जिनेन्द्रने दी है। वह सामान्य दृष्टिसे देखनेपर विपम प्रतीत होगा, तथापि जिनेन्द्रने तो सम ही कहा है । दोनो ही वाते जीवके कल्याणके लिये कही गयी है। जैसे सामान्य जीवका कल्याण हो वैसे विचारकर कहा है। इसी प्रकार मैथुनन्यागवत होनेपर भी उसमे अपवाद नहीं कहा है, क्योकि मैथुनकी आराधना रागद्वेपके बिना नही हो सकती, ऐसा जिनेद्रका अभिमत है। अर्थात् रागद्वेषको अपरमार्थरूप जानकर मैथुनत्यागकी अपवादरहिन आराधना कही है । इसी प्रकार वृहत्कल्पसूत्रमे जहाँ साधुके विचरनेकी भूमिका प्रमाण कहा है, वहाँ चारो दिशाओमे अमुक नगर तककी मर्यादा वतायी है. तथापि उसके अतिरिक्त जो अनार्य क्षेत्र है, उसमे भी ज्ञान, दर्शन और सयमकी वृद्धिके लिये विचरनेका अपवाद बताया है । क्योकि आर्यभूमिमे यदि किसी योगवश ज्ञानीपुरुपका समीपमे विचरना न हो और प्रारब्धयोगसे ज्ञानीपुरुपका अनार्यभूमिमे विचरना हो तो वहाँ जाना, इसमे भगवानकी बतायी हुई आज्ञाका भग नही होता। इसी प्रकार यदि साधु पत्र-समाचार आदिका प्रसग रसे तो प्रतिवन्ध वढता है, इस कारणसे भगवानने इसका निषेध किया है, परन्तु वह निषेध ज्ञानीपुरुषके किसी वैसे पत्र-समाचारमे अपवादल्प लगता है. क्योकि ज्ञानीके प्रति निष्कामरूपसे ज्ञानाराधनके लिये पत्र-समाचारका व्यवहार होता है। इसमे अन्य कोई ससारार्थ हेतु-उद्देश्य नही है, प्रत्युत ससारार्थ दुर होनेका हेतु है, और ससारको दूर करना
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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