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________________ २७ वां वर्ष कितने ही कर्म है कि जो भोगनेपर ही निवृत्त होते है, अर्थात् वे प्रारब्ध जैसे होते है। तथापि भेद इतना है कि ज्ञानीको प्रवृत्ति मात्र पूर्वोपार्जित कारणसे होती है, और दूसरोकी प्रवृत्तिमे भावी ससारका हेतु है, इसलिये ज्ञानीका प्रारब्ध भिन्न होता है। इस प्रारब्धका ऐसा निर्धार नही है कि वह निवृत्तिरूपसे ही उदयमे आये । जैसे श्री कृष्णादिक ज्ञानीपुरुष, कि जिन्हे प्रवृत्तिरूप प्रारब्ध होनेपर भी ज्ञानदशा थी, जैसे गृहस्थावस्थामे श्री तीर्थंकर । इस प्रारब्धका निवृत्त होना केवल भोगनेसे ही सभव है। कितनी हो प्रारब्धस्थिति ऐसी है कि जो ज्ञानीपुरुषके विषयमे उसके स्वरूपके लिये जीवोको सदेहका हेतु हो, और इसीलिये ज्ञानीपुरुप प्रायः जडमौनदशा रखकर अपने ज्ञानित्वको अस्पष्ट रखते हैं। तथापि प्रारब्धवशात् वह दशा किसीके - स्पष्ट जाननेमे आये, तो फिर उसे उस ज्ञानीपुरुषका विचित्र प्रारब्ध सदेहका कारण नही होता। ४८८ बबई, फागुन वदी १०, शनि, १९५० श्री 'शिक्षापत्र' ग्रन्थको पढ़ने ओर विचारनेमे अभी कोई बाधा नही है। जहाँ किसी सदेहका हेतु हो वहाँ विचार करना, अथवा समाधान पूछना योग्य हो तो पूछनेमे प्रतिबध नहीं है। सुदर्शन सेठ, पुरुषधर्ममे थे, तथापि रानीके समागममे वे अविकल थे। अत्यन्त आत्मबलसे कामका उपशमन करनेसे कामेद्रियमे अजागृति हो सम्भव है, और उस समय रानीने कदाचित् उनकी देहका ससर्ग करनेकी इच्छा की होती, तो भी श्री सुदर्शनमे कामको जागृति देखनेमे न आती, ऐसा हमे लगता है। ४८९ वबई, फागुन वदी ११, रवि, १९५० 'शिक्षापत्र' ग्रन्थमे मुख्य भक्तिका प्रयोजन है। भक्तिके आधाररूप विवेक, धैर्य और आश्रय इन तीन गुणोकी उसमे विशेष पुष्टि की है। उस धैर्य और आश्रयका प्रतिपादन विशेष सम्यक् प्रकारसे किया है, जिन्हे विचारकर मुमुक्षुजीवको उन्हे स्वगुण करना योग्य है। इसमे श्री कृष्णादिके जो जो प्रसग आते है वे क्वचित् सन्देहके हेतु होने जैसे है, तथापि उनमे श्री कृष्णके स्वरूपकी समझफेर मानकर उपेक्षित रहना योग्य है । मुमुक्षुका प्रयोजन तो केवल हितबुद्धिसे पढने-विचारनेका होता है। ४९० बंबई, फागुन वदो ११, रवि, १९५० ___ उपाधि दूर करनेके लिये दो प्रकारसे पुरुषार्थ हो सकता है, एक तो किसी भी व्यापारादि कार्यसे, और दूसरे विद्या. मत्रादि साधनसे । यद्यपि इन दोनोमे पहिले जीवके अतरायके दूर होनेका सम्भव होना चाहिये । पहिला बताया हुआ प्रकार किसी तरह हो तो उसे करनेमे अभी हमे कोई प्रतिवन्ध नहीं है, परन्तु दूसरे प्रकारमे तो केवल उदासीनता ही है, और यह प्रकार स्मरणमे आनेसे भी चित्तमे खेद हो आता है, ऐसी उस प्रकारके प्रति अनिच्छा है । पहिले प्रकारके मम्बन्धमे अभी कुछ लिखना नही सूझता। भविष्यमे लिखना या नही वह, उस प्रसगमे जो होने योग्य होगा वह होगा। जितनी आकुलता है उतना मार्गका विरोध है, ऐसा ज्ञानीपुरुष कह गये हैं, जो बात हमारे लिये अवश्य विचारणीय है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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