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________________ ३९२ श्रीमद् राजचन्द्र ४७२ बम्बई, आसोज सुदी ९, वुध, १९४९ परमस्नेही श्री सुभाग्य तथा श्री डुगर, श्री सायला। आज श्री सुभाग्यका लिखा हुआ एक पत्र मिला है। खले पत्रमे सुधारस सम्बन्धी प्राय स्पष्ट लिखा था, सो जानबूझकर लिखा था। ऐसा लिखनेसे विपरिणाम आनेवाला नही है, यह समझकर लिखा था। यदि कुछ कुछ इस बातके चर्चक जीवके पढनेमे यह बात आये तो केवल उससे निर्धार हो जाये, यह सभव नही है, परन्तु यह संभव है कि जिस पुरुषने ये वाक्य लिखे है, वह पुरुष किसी अपूर्व मार्गका ज्ञाता है, और उससे इस बातका निराकरण होना मुख्यत. सभव है, ऐसा जानकर उसकी उसके प्रति कुछ भी भावना उत्पन्न होती है। कदाचित् ऐसा मानें कि उसे इस विषयको कुछ कुछ सज्ञा हुई हो, और यह स्पष्ट लेख पढनेसे उसे विशेष सज्ञा होकर अपने आप वह निर्धारपर आ जाये, परन्तु यह निर्धार ऐसे नही होता। उससे उसका यथार्थ स्थल जानना नही हो सकता, और इस कारणसे जीवको विक्षेपकी उत्पत्ति होती है । कि यह बात किसी प्रकारसे जाननेमे आये तो अच्छा । तो उस प्रकारसे भी जिस पुरुषने लिखा है उसके प्रति उसे भावनाकी उत्पत्ति होना सभव है। तीसरा प्रकार इस तरह समझना योग्य है कि सत्पुरुषकी वाणी स्पष्टतासे लिखी गयी हो तो भी उसका परमार्थ, जिसे सत्पुरुषका सत्सग आज्ञाकारितासे नही हुआ उसे समझमे आना दुष्कर होता है, ऐसे उस पढनेवालेको कभी भी स्पष्ट जाननेका कारण होता है। यद्यपि हमने तो अति स्पष्ट नही लिखा था, तो भी उन्हे ऐसा कुछ सभव होता है । परन्तु हम तो ऐसा मानते हैं कि अति स्पष्ट लिखा हो तो भी प्रायः समझमे नही आता, अथवा विपरीत समझमे आता है और परिणाममे फिर उसे विक्षेप उत्पन्न होकर सन्मार्गमे भावना होना सभव होता है। यह बात पत्रमे हमने इच्छापूर्वक स्पष्ट लिखी थी। सहज स्वभावसे भी न विचार किया हुआ प्राय. परमार्थके सम्बन्धमे नही लिखा जाता, अथवा नही कहा जाता कि जो अपरमार्थरूप परिणामको प्राप्त करे । उस ज्ञानके विपयमे लिखनेका जो हमारा दूसरा आशय है, उसे विशेषतासे यहाँ लिखा है। (१) जिस ज्ञानीपुरुषने स्पष्ट आत्माका, किसी अपूर्व लक्षणसे, गुणसे और वेदनरूपसे अनुभव किया है, और जिसके आत्माका वही परिणाम हुआ है, उस ज्ञानीपुरुपने यदि उस सुधारस सम्बन्धी ज्ञान दिया हो तो उसका परिणाम परमार्थ-परमार्थस्वरूप है। (२) और जो पुरुष उस सुधारसको ही आत्मा जानता है, उससे उस ज्ञानकी प्राप्ति हुई हो तो वह व्यवहार-परमार्थस्वरूप है। (३) वह ज्ञान कदाचित् परमार्थ-परमार्थस्वरूप ज्ञानीने न दिया हो, परन्तु उस ज्ञानीपुरुषने सन्मार्गके सन्मुख आकर्षित करे ऐसा जो जीवको उपदेश किया हो वह जीवको रुचिकर लगा हो, उसका ज्ञान परमार्थ-व्यवहारस्वरूप है। (४) और इसके सिवाय शास्त्रादिका ज्ञाता सामान्य प्रकारसे मार्गानुसारी जैसी उपदेशबात करे, उसकी श्रद्धा की जाय, वह व्यवहार व्यवहारस्वरूप है। सुगमतासे समझनेके लिये ये चार प्रकार होते हैं। परमार्थ-परमार्थस्वरूप मोक्षका निकट उपाय है। इसके अनतर परमार्थ-व्यवहारस्वरूप परपरासम्बन्धसे मोक्षका उपाय हे । व्यवहार-परमार्थस्वरूप बहुत कालमे किसी प्रकारसे भी मोक्षके साधनका कारणभूत होनेका उपाय है । व्यवहार-व्यवहारस्वरूपका फल आत्मप्रत्ययी सभव नही होता। यह वात फिर किसी प्रसगसे विशेषरूपसे लिखेगे, तब विशेपल्पसे समझमे आयेगी, परन्तु इतनो सक्षेपतासे विशेष समझमे न आये तो घबराइयेगा नही। १ देखें आक ४७१
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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