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________________ २६ वा वर्ष ३७९ कल्याणमे प्रतिबधरूप जो-जो कारण है, उनका जीवको वारवार विचार करना योग्य है, उन-उन कारणोका वारवार विचार करके दूर करना योग्य है, और इस मार्गका अनुसरण किये विना कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती। मल, विक्षेप और अज्ञान ये जीवके अनादिके तीन दोप हैं। ज्ञानीपुरुपोके वचनोकी प्राप्ति होनेपर, उनका यथायोग्य विचार होनेसे अज्ञानकी निवृत्ति होती है । उस अज्ञानको सतति बलदान होनेसे उसका रोध होनेके लिये और ज्ञानीपुरुषोके वचनोका यथायोग्य विचार होनेके लिये मल और विक्षेपको दूर करना योग्य है । सरलता, क्षमा, अपने दोप देखना, अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह इत्यादि मल मिटनेके साधन है । ज्ञानीपुरुषकी अत्यत भक्ति विक्षेप मिटनेका साधन है। ज्ञानीपुरुषके समागमका अतराय रहता हो, उस-उस प्रसगमे वारवार उन ज्ञानीपुरुपकी दशा, चेष्टा और वचनोका निरीक्षण करना, स्मरण करना और विचार करना योग्य है। और उस समागमके अतरायमे, प्रवृत्तिके प्रसगोमे अत्यन्त सावधानी रखना योग्य है, क्योकि एक तो समागमका बल नहीं है और दूसरा अनादि अभ्यास है जिसका, ऐसो सहजाकार प्रवृत्ति है, जिससे जीव आवरणप्राप्त होता है । घरका, जातिका अथवा दूसरे वैसे कामोका कारण आनेपर उदासीन भावसे उन्हे प्रतिवधरूप जानकर प्रवृत्ति करना योग्य है। उन कारणोको मुख्य बनाकर कोई प्रवृति करना योग्य नहीं है, और ऐसा हुए बिना प्रवृत्तिका अवकाश प्राप्त नहीं होता। आत्माको भिन्न-भिन्न प्रकारकी कल्पनामे विचार करनेमे लोकसज्ञा, ओघसज्ञा और असत्सग ये कारण हैं, जिन कारणोमे उदासीन हुए बिना, नि सत्त्व ऐसी लोकसबधी जपतपादि क्रियामे साक्षात् मोक्ष नहीं है, परपरा मोक्ष नहीं है, ऐसा माने बिना, नि सत्त्व असत्शास्त्र और असद्गुरु, जो आत्मस्वरूपके आवरणके मुख्य कारण हैं, उन्हे साक्षात् आत्मघाती जाने बिना जीवको जीवके स्वरूपका निश्चय होना बहुत दुष्कर है, अत्यन्त दुष्कर है । ज्ञानीपुरुषके प्रगट आत्मस्वरूपको कहनेवाले वचन भी उन कारणोंके कारण जीवको स्वरूपका विचार करनेके लिये बलवान नहीं होते। __अब ऐसा निश्चय करना योग्य है कि जिसे आत्मस्वरूप प्राप्त है, प्रगट है, उस पुरुषके बिना अन्य कोई उस आत्मस्वरूपको यथार्थ कहनेके योग्य नहीं है, और उस पुरुषसे आत्मा जाने विना अन्य कोई कल्याणका उपाय नहीं है । उस पुरुपसे आत्मा जाने बिना, आत्मा जाना है. ऐसी कल्पनाका मुमुक्षु जीवको सर्वथा त्याग करना योग्य है । उस आत्मारूप पुरुषके सत्सगको निरतर कामना रखकर उदासीनतासे लोकधर्मसम्बन्धी और कर्मसम्बन्धी परिणामसे छूटा जा सके इस प्रकारसे व्यवहार करना। जिस व्यवहारके करनेमे जीवको अपनो महत्तादिकी इच्छा हो वह व्यवहार करना यथायोग्य नहीं है। हमारे समागमका अभी अन्तराय जानकर निराशाको प्राप्त होना योग्य है, तथापि वैसा करनेमे 'ईश्वरेच्छा' जानकर समागमकी कामना रखकर जितना परस्पर मुमुक्षुभाइयोका समागम हो सके उतना करें, जितनी हो सके उतनी प्रवृत्तिमे विरक्तता रखें, सत्पुरुषोके चरित्र और मार्गानुसारी (सुन्दरदास, प्रीतम, अखा, कबीर आदि) जोवोके वचन और जिनका उद्देश मुख्यत. आत्माको कहनेका ह, ऐसे (विचारसागर, सुन्दरदासके ग्रन्थ, आनन्दधनजी, बनारसोदास, कबीर, अखा इत्यादिके पद) ग्रन्थोका परिचय रखें, और इन सब साधनोमे मुख्य साधन तो श्री सत्पुरुपका समागम मानें । हमारे समागमका अतराय जानकर चित्तमे प्रमादको अवकाश देना योग्य नहीं है, परस्पर मुमुक्षभाइयोके समागमको अव्यवस्थित होने देना योग्य नहीं हे, निवृत्तिके क्षेत्रका प्रसग न्यून होने देना योग्य नही है, कामनापूर्वक प्रवृत्ति योग्य नहीं है, ऐसा विचारकर यथासम्भव अप्रमत्तताका, परस्परके समागमका, निवृत्तिके क्षेत्रका और प्रवृत्तिकी उदासीनताका आराधन करें।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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